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________________ 147. . * तिर्यचोंका गतिद्वार * जया मोहोदओ तिव्वो, अन्नाणं सुमहब्भय / पेलवं वेअणीयं तु, तया एगिदिअत्तणं // 304 // गाथार्थ-जब मोहोदय अर्थात् मैथुनाभिलाषकी अत्यन्त गाढ-तीव्रता वर्तित हो / अच्छी तरह अनाभोगरूप-महाभयानक [ क्योंकि अज्ञान वस्तु सचेतन ऐसे जीवको भी कठिनाईमें डालकर अचेतनरूप करता है उस अज्ञानसे कौन डरता नहीं ? अर्थात् सर्व कोई डरता है / ] ऐसा अज्ञान वर्तित हो, असार–अशातारूप वेदनीय कर्म उदयमें आया हो, तब जीव महादुःखसे ऐसा एकेन्द्रियत्व प्राप्त करता हैं अतः मैथुनाभिलाष, अज्ञानको दूर करनेके लिए शील-संयम तथा ज्ञानोपासनामें उद्यमशील बनना / // 304 // विशेषार्थ-गाथार्थवत् सुगम है / [304] . // तिर्यंचोंका सातवाँ गतिद्वार // अवतरण--उपपात, च्यवन, विरहकाल तथा उसकी संख्याके द्वारों इस तरह चारों द्वार बताकर अब कौनसे जीव तिर्यचमें जाए ? वह गतिद्वार कहलाता है। तिरिएसु जंति संखाउ-तिरिनरा जा दुकप्पदेवा उ / पज्जत्तसंखगब्भय-बादरभूदग परित्तेसुं // 305 // तो सहसारंतसुरा, निरया य पज्जत्तसंखगब्भेसु // 3053 // गाथार्थ—संख्याता वर्षायुषी तिथंच तथा मनुष्य तिर्यंचमें जाते हैं और यावत् दो कल्प तकके देव, पर्याप्त संख्यातायुषी गर्भज, तिर्यंच तथा पर्याप्ता बादर पृथ्वीकाय, अपकाय और प्रत्येक वनस्पतिमें जाते हैं और उससे ऊपरके [सनत्कुमारसे लेकर] सहस्रारान्त तकके देव तथा सर्व नारको, पर्याप्ता संख्याता वर्षायुषी गर्भज तिर्यचमें जाते हैं। // 3051 / / . विशेषार्थ-गाथाके तिर्यच शब्दसे सूक्ष्म और बादर एकेन्द्रिय-दोइन्द्रिय-त्रिइन्द्रियचउरिन्द्रिय तथा संख्यातायुषी पंचेन्द्रिय तिर्यंच लेना तथा मनुष्योंसे संमूच्छिम तथा संख्य वर्षायुषी गर्भज पंचेन्द्रिय मनुष्य, वे सर्व स्वभवमेंसे मरकर [ नरक-देव-युगलिकत्व वयं ] तिर्यंचमें जाते हैं / अर्थात् पर्याप्ता वा अपर्याप्ता ऐसे एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय तिर्यचमें जाते हैं / ___साथ ही गाथाके 'यावत् दो कल्प' शब्दसे भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक निकायके सौधर्म, ईशान इस कल्प तकके देव लेने हैं। ये देव मरकर पर्याप्ता
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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