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________________ * तिर्यच जीवोंका आगतिद्वार और लब्धिका वर्णन. इनमें जो विकलेन्द्रिय मरकर अनन्तरभवमें मनुष्यत्व पाए हों तो वहाँ सर्व विरतिपनेको पा सकते हैं. परंतु सर्व "विरतिपन पाकर उसी भवमें सिद्ध होते नहीं हैं। साथ ही तेउ तथा वायुकायके जीव अनन्तर भवमें तथाविध भवस्वभावसे मनुष्यरूपमें उत्पन्न नहीं होते, परंतु शेष तिर्यंचमें ही उत्पन्न होते हैं, और भारी कर्मके उदयसे भवस्वभावसे ही सम्यक्त्वके लाभसे भी वंचित ही रहते हैं। विकलेन्द्रिय तथा तेज, वायुकायके सिवाय शेष रहे संमूच्छिम-गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्य और सूक्ष्म वादर पृथ्वीअप-वनस्पतिके जीव तो अनन्तरभवमें मनुष्यत्व पाकर मुक्तिको भी पाते हैं। [306-307] अवतरण-इस तरह आठों द्वार समाप्त करके, अब तिर्यंचोंकी लेश्या कहनेके पूर्व मनुष्यगति अधिकारमें मनुष्याश्रयी लेश्या नहीं कही गई थी, लाघवार्थ उसे भी तिर्यंचोंकी व्याख्याके प्रसंग पर यहाँ कहते हैं / 451. सम्यक्त्व अर्थात् क्या ?-निश्चय दृष्टि से सर्वशभाषित तत्वों परका यथार्थ श्रद्धान, जड -चैतन्यका सच्चा विवेक करनेवाली दृष्टि / व्यवहारदृष्टिसे सुदेव, सुगुरु, सुधर्मका स्वीकार तथा कुदेव, कुगुरु, कुधर्मका अस्वीकार / __ अनादिकालसे मिथ्याज्ञान तीव्रमोह-अविद्याके कारण जीवको सदसत् वस्तुका विवेक जागृत होता नहीं, अतः सत्में असत् और असत्में सत्बुद्धि धारण करके, तदनुसार स्वीकार करके, तदनुकूल आचरण करता है / परिणाम स्वरूप असत्का स्वीकार उसे असत् मार्ग पर-अधोगतिमें ले जाता है। और इसलिए उसका संसारचक्र कभी भिदता नहीं और संसारसे मुक्त होकर, मुक्तिकी मंजिल पर कभी पहुँच नहीं सकता / ... अनादिकालसे जीवनमें उपस्थित की गई रागद्वेषकी तीव्र मोहग्रन्थी किसी पुण्योदयसे यदि भेदी जाए तो मिथ्याबुद्धि टले, अज्ञान कम हो और सद्बुद्धि पैदा हों तथा सदसत्का सच्चा विवेक प्रकट हो जाए / इसके प्रकट होने के बाद ही जीवनका प्रारंभ होता है / तब तककी अनेक भवकी प्रवृत्ति शून्य तुल्य है अर्थात् आत्मकल्याणके लिए नहीं केवल संसारवर्धक के लिए ही होती है / .. अतः हरेक आत्माको मिथ्यात्व दूर करके जिन-प्रणीततत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धा करनी चाहिए जिसे हम / सम्यगदृष्टि. कहते हैं। देशविरति-सम्यक्त्वकी प्राप्ति चौथे गुणस्थानकमें होती है / . श्रद्धान होनेके बाद परमात्माके सिद्धान्तोंको श्रवण करनेके बाद अमुक अंशमें पापप्रवृत्तिका त्याग करे तब समझना कि उस आरमाने देशसे उतने अंशमें विरति कहते त्याग किया कहा जाता है / ____ यह त्याग हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह इत्यादिका समझना / यह चौथी सम्यक्दृष्टिके गुणस्थानक बाद के पांचवें गुणस्थानकमें होता है / सर्वविरति-सर्व अर्थात् सर्वथा-संपूर्ण, विरति कहनेसे त्याग। देशविरतिमें आंशिक त्याग होता है, वह गृहस्थाश्रमियों के लिए है / जब जो आत्मा संसारकी मोहमायाका अर्थात् घर-कुटुंब, परिवार, दौलत तमाम प्रकारका त्याग करके साधु-मुनि-श्रमण बन जाती है तब उसे मन, वचन, कायासे सर्वथा हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह इत्यादि पापोंका हृदयके भावसे, प्रेमसे त्याग करनेका होता है / यह व्याग करनेवाले साधु ही होता है, और वह आत्मा इस छठे गुणस्थानकवाला गिना आता है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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