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________________ .144. श्री बृहतसंग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर लोकमें सर्वत्र रहे हैं; उन सूक्ष्मजीवोंका मनुष्यादि जीवोंको हलचलसे, शस्त्रादिकसे, अमिसे भी नाश नहीं होता / ये जीव किसी भी कार्यमें अनुपयोगी तथा शस्त्रादिकके घातसे अविनाशी चर्मचक्षुसे अदृश्य होनेसे 'सूक्ष्म' कहलाते हैं, इनसे विपरीत लक्षणवाले जीव 'वादर' कहलाते हैं / इस निगोदके जीव दो प्रकारके हैं / 1 सांव्यवहारिक, 2 असांव्यवहारिक / जो . जीव अनादि सूक्ष्म निगोदसे एक बार भी निकलकर शेष सूक्ष्म-बादर पृथ्व्यादि जीवोंमें उत्पन्न होते दृष्टिपथमें आते हैं वहाँ वे पृथ्व्यादि विविध नामके व्यवहार (अनादिकालसे 'सूक्ष्म निगोद' रूपका सूक्ष्मत्व नष्ट करके अन्य नामसे व्यवहार होना वह) के योगसे सांव्यवहारिक गिना जाता है / साथ ही सांव्यवहारिककी छाप पाये हुए जीव दुर्भाग्य, . योगसे पुनः निगोदमें जाए तो भी एक बार व्यवहारमें आ गये होनेसे, वहाँ भी उनका व्यवहार सांव्यवहारिक रूपमें ही होता है / __असांव्यवहारिक वे कहलाते जो जीवो अनादिकालसे गुफामें जन्म लेते और गुफामें मरे की तरह सूक्ष्म निगोदमें ही रहे हैं, कदापि बाहर निकलकर बादरत्व या त्रसादिकपन पाये नहीं हैं। [मतांतरसे कदापि सूक्ष्म निगोद वर्जित करके अन्य पृथ्वी आदि सूक्ष्म : या बादरके व्यवहारमें नहीं आये हैं वे ] जितने जीवो सांव्यवहारिक राशिमेंसे मोक्षमें जाएँ, उतने ही जीवो असांव्यवहारिक राशिमेंसे निकलकर सांव्यवहारिक राशिमें आते हैं / जिससे व्यवहारराशि हमेशा समान रहे, जबकि असांव्यवहारिक राशि हर समय घटती जाए, ( परंतु कदापि अनंत मिटकर असंख्य न ही हो।) इस निगोदमें भव्य तथा अभव्य जीवो सदाकाल अनंत-अनंत ही होते हैं / ऐसे मी अनंतभव्य जीवो हैं कि जो सामग्रीको पानेवाले नहीं हैं और मुक्तिमें जानेवाले भी नहीं हैं। - निगोद अर्थात् 'अनंत जीवोंका साधारण एक शरीर ' जो स्तिबुकाकार ( पानीके बुलबुले) समान है। इस निगोदमें वर्तित जीव समकालमें उत्पन्न होनेवाले होते हैं, अनंतजीवोंकी शरीर रचना, उच्छ्वास, निःश्वास, आहारादि योग्य पुद्गलोंका ग्रहण विसर्जन आदि, एक साथ ही समकालमें होता है, और इसीसे साधारण ( समान स्थितिवाले ) रूपमें पहचाने जाते हैं। ये सूक्ष्म निगोद जीव बादर निगोदसे असंख्य गुना होनेसे अनंत हैं, अनंत जीवोंका औदारिक शरीर एक ही होता है ( तेजस्-कार्मण प्रत्येकके अलग ही होते हैं) और उसका देहमान अंगुलके असंख्यातवें भागका मात्र है, इतनी एक सूक्ष्म शरीरावगाहनामें
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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