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________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * (जुगलीआ) क्षेत्रों के रूपमें प्रचलित हैं / युगलिक अर्थात् युगलरूपमें जो जन्म लें और तत्भूमि योग्य व्यवहार करें वे / इस भूमिकी स्त्रियाँ मृत्युके लिए छः मास शेष रहे तब एक ही बार प्रसूता होती हैं / और उस समय नर-नारीका एक ही युगल प्रसूत होता है / और वही बड़ा होने पर पति-पत्नी बनता है / इस भूमिका ऐसा ही परापूर्वसे व्यवहार प्रवर्त्तमान है / इस भूमिमें दस प्रकारके कल्पवृक्ष हैं / और वे वृक्ष ही युगलिकोंकी इच्छा अनुसार पहनने-ओढने, खाने-पीने, सोने-बैठने, प्रकाश-संगीत आदि भोग उपभोगके सारे साधन देते है; जिससे वो परम आनंदमें समय बिताते हैं / दूसरा कोई वहाँ उद्यम . नहीं है / वहाँ क्लेश-कलह जैसा कुछ भी नहीं होता / बाह्यदृष्टिसे वे सब तरह सुखी होते हैं / तीव्र राग-द्वेष न होनेसे इस युगलिक मनुष्यको कर्म बंध कम होता है। युगलिक मरकर देवगतिमें ही जाते हैं। तीस अकर्मभूमि कौनसी ? –तो अढाईद्वीपवर्ती, पांच हैमवंत, पांच हरिवर्ष और पांच देवकुरू, पांच उत्तरकुरू, पांच रम्यक्, पांच हैरण्यवंत ये सब क्षेत्र मिलकर तीस होते हैं। छप्पन अन्त:पके मनुष्य- जंबूद्वीपके भरतक्षेत्रकी उत्तरमें आए हिमवंत पर्वतके पूर्व• पश्चिम छोर लवण समुद्र में विस्तरित हैं / हरेक छोर दंतुशलके आकार में उत्तर-दक्षिणकी तरफ विस्तृत होकर रहे हैं जिन्हें (दंष्ट्राएँ) 'दाढ़ें' कहा जाता है / इसी तरह ऐरवत क्षेत्रकी दक्षिणमे शिखरी पर्वतके दोनों छोर समुद्र में गए हैं और उनके दोनों छोरमेंसे दो दो 'दाढ़े' निकली है / इस तरह एक पर्वतकी चार दाढोंके हिसाबसे दो पर्वतोंकी आठ दाढ़ें हुई, हरेक दाढ पर सात सात अंतीपो हैं / आठ दाढोंके मिलकर 56 अन्तद्वीप होते हैं / तमाम द्वीपोंमें अकर्मभूमिकी तरफ युगलिक मनुष्य ही बसते हैं / इस तरह कर्मभूमि 15, अकर्मभूमि 30, अन्तर्वीप 56 इन तीनों मनुष्य क्षेत्रोंका जोड 101 होता है / इतने भेद मनुष्यके हुए / इन क्षेत्रों में ही मनुष्य उत्पन्न होते हैं / मनुष्य गर्भज तथा संमूच्छिम इस तरह दो प्रकारके होते हैं। साथ ही गर्भज पर्याप्ता और अपर्याप्ता दो प्रकारके हैं और संमूच्छिम मात्र अपर्याप्ता ही होते हैं क्योंकि वे अपर्याप्ता ही मृत्यु पाते हैं। इससे 101 गर्भज पर्याप्ता और अपर्याप्ता मिलकर 202 भेदो और समूच्छिमके 101 भेदो मिलकर 303 भेदो होते हैं। संमूच्छिम मनुष्य गर्भज मनुष्यके विष्टा, मूत्र, बलगम, नासिकाका मैल, वमन, मवाद, खून, वीर्य आदि चौदह अशुचि स्थानकों में उत्पन्न होते हैं / समाप्तं नवमं परिशिष्टम् /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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