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________________ // पत्तन [ पाटण ] मंडन श्री पंचासरापार्श्वनाथाय नमः / / // सिद्ध, उनका स्थान और परिस्थिति विषयक परिशिष्ट सं. 10 // जैन शास्त्रमान्य चौदह राजप्रमाण विश्व में अनंतानंत जीवात्माएँ हैं / चैतन्य स्वरूपमें वे सब समान हैं / अनंता जीवोंको सुविधाके लिए शास्त्रकारोंने दो विभागोंमें बांट डाला है। 1. संसारी 2. सिद्ध / इनमें एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके देव, नरक, मनुष्य और तिर्यच इन चार गतिमें वर्तित जीव 'संसारी' कहलाते हैं / द्रव्यबंध और भावबंधसे होता अन्य जन्मोंका संसरण-भ्रमण शेष होनेसे उन्हें 'संसारी' रूप में पहचाना जाता है। इन जीवोंके 563 भेद हैं / इन भेद-प्रभेदोंकी गिनती किस तरह है। इसे 'जीवविचार' नामके प्रकरण ग्रन्थसे अभ्यासियोंको जानना योग्य है। दूसरे प्रकार में आते हैं 'सिद्ध। जैसे संसारी, ये भी जीव हैं उसी तरह सिद्ध भी जीव ही है। यहाँ शंका जरूर हो सकती है कि, संसारी जीवोंके तो इन्द्रियादि दस प्राण हैं लेकिन सिद्धोंके तो 'सिद्धाण नत्थि देहो, न आउ कम्मं न पाणजोणिओ' इस कथनानुसार इन्हें प्राण हैं ही नहीं फिर उन्हें जीव कैसे कहे जाएँ? क्योंकि जीवकी व्याख्या 'जीवति प्राणान् धारयतीति जीवः' / जो प्राणोंको धारण करता है वह जीव / जबकि यहाँ पर तो एक भी प्राण नहीं है तो क्या समझना ? इसका समाधान यह है कि, 'प्राणको जो धारण करे वह जीव' इसमें प्राणके आगे कोई भी विशेषण नहीं रक्खा गया, अतः यहाँ प्राणोंसे बाह्य दस प्राणोंको ही समझना नहीं है परंतु प्राण तो दो प्रकारके हैं / 1. द्रव्यप्राण 2. भावप्राण / पांच इन्द्रियोंके पांच प्राण, मनःप्राण, वचनप्राण, कायप्राण, भाषाप्राण और श्वासोच्छ्वास प्राण ये दस-द्रव्य या बाह्य प्राण हैं, और ज्ञानप्राण, दर्शनप्राण और चारित्रप्राण ये तीन भावप्राण हैं / कर्मसंगजन्य द्रव्यप्राण भले ही सिद्धोंके नहीं है, परंतु कर्मसंगके अभावमें संपूर्णतया प्रकट हुए भावप्राण तो जरूर है ही, भावप्राण ही सच्चा चैतन्य है। इस तरह संसारी और सिद्ध दोनों प्राण धारण करनेवाले हैं। ___ अब सिद्ध अथवा मोक्ष कब और कैसे हो अथवा मोक्ष किसे कहा जाए ? इसके लिये उसकी पूर्वभूमिका समझानी जरूरी है। ... जगतमें जीवो अनंता हैं अतः उन जीवोंकी कर्म-प्रवृत्तियोंके प्रकारो भी अनंता है। उनके असरो असंख्याती हैं, परंतु उन असंख्य अनंतकी अनंत व्याख्याएँ क्या कम हो सकती हैं ? अतः उन तमाम प्रवृत्तियों का विभाजन करके उन कर्माको आठ प्रकारमें बाँटे गये हैं। . (1) विशेष-ज्ञान-बोधगुणका आवरण करे वह ज्ञानावरणकर्म / (2) सामान्यज्ञानबोधको आच्छादित करे वह दर्शनावरण / (3) सुख या दुःखका अनुभव करावे वह वेदनीय / (4) आत्माको मोह-असमंजस, व्यथा, विकलताएँ पैदा करावे वह मोहनीय /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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