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________________ .84. * श्री बृहतसंग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * पूर्वक उपयोग करने पर [ सगरचक्री पुत्रवत् ] एक हजार योजन गहरी अधोभूमि में अद्भुत वेगसे प्रवेश करके, जमीन खोदकर मार्ग कर देनेवाला, गुफाओंके द्वार खोलने में उपयोगी, वज्र का बना हुआ, तथा बीच में तेजस्वी रत्नोंकी पांच रेखा-पट्टियों से शोभित है / 4. चर्मरत्न-चमडे का बना हुआ यह रत्न, चक्री के लक्ष्मीभंडार में उत्पन्न होता है / यह रत्न श्रीवत्सादि आकारवाला, अनेक प्रकार के चित्रोंसे चित्रित, शत्रुसे दुर्भेद्य, चक्रवर्ती की सेना बैठ जाए तो भी झके नहीं ऐसा होता है / इस. रत्न का उपभोग यह है कि-जब चक्री छः खंडोंको जीतने जाते सेनापति रत्न को गंगा-सिंधु के निप्कूटों [प्रदेश ] को साधने को भेजता है तब सेनापति समग्र चक्री सैन्यको उसके पर बिठाकर गंगा-सिंधु जैसी महान नदियों को जहाज की तरह शीघ्र तैर जाता है, फिर भी लेशमात्र झकता नहीं है / साथ ही समुद्रादिक तैरनेमें भी उपयोगी होता है / इसीलिए वामप्रमाण होने पर भी चक्री के स्पर्शमात्र से साधिक 12 योजन विस्तीर्ण होता है, जरूरत पड़ने पर गृहपति-मनुष्य रत्ने उस चर्मरत्न पर बोये धान्य-शाकादिक को शाम को ही काट लेने योग्य करनेवाला और वैताढ्य पर्वत की उत्तर दिशा में बसे : म्लेच्छ राजाओं के साथ युद्ध होने पर, चक्री को परास्त करने को म्लेच्छ अपनेसे आराधित किये मेघकुमार असुरों के पास मेघवृष्टि करवाते हैं, उस प्रसंग पर उस वृष्टि से बचने को ऊपर के भाग में ढक्कन सम छत्र रत्न और नीचे चर्मरत्न विस्तृत करके उस चर्मरत्न पर चक्री की महासेना को स्थापित करके, चारों बाजु से संपुट बना दिया जाता है, फिर प्रस्तुत छत्र रत्न के साथ बीचमें मणिरत्न बांधा जाए, जिससे 12 योजन के संपुट में सर्वत्र सूर्यवत् प्रकाश पड़ता है, जिससे संपुट के गमनागमन सुखरूप हो सकता है / इस तरह एक विराट तंबू जैसा दृश्य हो जाता है / 5. खड्गरत्न-तलवार जैसा यह रत्न भी आयुधशाला में उत्पन्न होता है / युद्ध में अप्रतिहत शक्तिवाला है / तीक्ष्ण धारवाला, श्यामवर्णका, पर्वत-वज्रादिक जैसी दुर्भद्य वस्तु को, चर या स्थिर प्रकार में पदार्थ को भेदनेवाला, अद्भुत वैडूर्यादि रत्नलतासे शोभित, सुगंधमय, तेजस्वी होता है / ____392. यह रत्न पृथ्वीकायमय है, तो भी वह चर्म-चमडे के जैसा मजबूत तलवेवाला और देखनेवाले को मानो चमडा ही बिछाया हो वैसा आभास उत्पन्न करनेवाला होनेसे उसका 'चर्म' शब्दसे व्यपदेश किया जाता है। अन्यथा सचमुच चमडा नहीं है / चमडा तो पंचेन्द्रिय जीवका संभवित है, जबकि ये रत्न एकेन्द्रिय हैं इसी तरह दण्डरन के लिए समझना, सातों रत्न पार्थिव स्वरूप में समझना /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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