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________________ * नरकगति अधिकार में आठवाँ परिशिष्ट . साथ ही इन्द्रियप्रत्यक्ष वही प्रत्यक्ष कहा जाए यह भी एक मिथ्याभ्रम है / वस्तुतः इन्द्रियप्रत्यक्ष तो उपचार से ही प्रत्यक्ष कहा जाए / अन्यथा तत्वदृष्टि से वह भी परोक्ष ही है / अतः यह बात नक्की हो जाती है कि अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष वही वास्तविक रीत से प्रत्यक्ष कहा जाए, क्योंकि जिन्हें विशिष्ट शान लब्धि प्राप्त होती है उन्हें यह दृश्यमान इन्द्रियों से कुछ भी प्रत्यक्ष करने का प्रयोजन नहीं रहता, वे शानद्वारा ही सब कुछ आत्मप्रत्यक्ष कर सकते हैं / अतः जिस ज्ञान प्रानि में अन्य निमित्त की अपेक्षा रहे वह शान प्रत्यक्ष नहीं कहा जाता अर्थात् जिस ज्ञान में इन्द्रियों की मदद निमित्तरूप बने उस ज्ञान को प्रत्यक्ष कैसे कहा जाए ? नहीं ही कहा जाए / केवलशानी को विश्व के चराचर सारे पदार्थों शान से आत्मप्रत्यक्ष होते हैं / उन्हें देखने के लिए बीच में इन्द्रियादि किसी निमित्त की जरूरत नहीं पड़ती, अतः अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष वही सच्चा प्रत्यक्ष है और वह अतीन्द्रिय शानियों से ही साध्य है। इस से यह हुआ कि इन्द्रियप्रत्यक्ष वह तात्त्विक रूप से वास्तविक प्रत्यक्ष नहीं है ऐसा निश्चित होता है। केवलशानियों ने देखी हुई और तत्पश्चात् उन से प्ररूपित हकीकतों का संपूर्ण सत्य रूप में स्वीकार करना चाहिए उसका क्या कारण ? तो केवलज्ञानी वही हो सकता है कि जो असत्य बोलने के राग-द्वेष-मोहादि हेतुओं को नष्ट करके वीतराग सर्वश बने हों / अतः ऐसा व्यक्ति ज्ञान से जो देखे वही कहे, असत्य प्ररूपणा कदापि न करते। तथा नरक और नरक के जीवों का प्रतिपादन इन्होंने ही किया होने से नारको हैं और इनके होने के कारण उनके रहने के आधाररूप नरकस्थान भी हैं। . इस तरह सामान्य चर्चा से उभय की सिद्धि की गई। तक से नरकसिद्धि दूसरी रीत से बौद्रिक या तार्किक दृष्टि से विचार करें. (1) इस मानवसृष्टि पर एक मनुष्यने एक व्यक्ति का खून किया तो उसे विश्व की कोई भी राजसत्ता अधिकाधिक सजा करे तो एक ही बार फांसी की सजा करे जब कि दूसरी एक व्यक्ति ने असंख्य खून किये हों तो उसे भी वही एक बार फांसी की * सजा करे, तो दोनों के अपराध में पेसिफीक महासागर जैसा विशाल अंतर होने पर भी सजा समान ही, यह न्यायपूर्ण माना जाए क्या ? हरगिज नहीं / (2) दूसरे एक दुष्ट मनुष्य ने सैकडों, हजारों बल्कि लाखों के पालक, पोषक, रक्षक यावत योग-क्षेम करनेवाले व्यक्ति का खून किया, तो क्या उसे देहांतदंड की सजा पर्याप्त है सही ? (3) तीसरे एक भयंकर युद्धखोर मनुष्य ने महाविश्वयुद्ध जगाया, समग्र दुनिया को यातना, दुःख, त्रास और मांस की भयंकर ज्वालाओं में धकेल दिया, लाखों के करुण संहार सरजाए, समग्र विश्व को त्राहि त्राहि (बायस्व प्रायस्व ) की पुकार करवाई लेकिन अंत में उसका ही करूण अंजाम आया, स्वयं ही पराजित हुआ / कैद करके उसे लश्करी अदालत के समक्ष खड़ा किया, उसके अपराध के लिए न्यायाधीश फैसला दे तो, वो क्या देगा ? एक बार की फांसी या दूसरा कुछ ? तो इतनी सजा योग्य है क्या ?
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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