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________________ *72. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * . (4) अरे ! इस दुनिया में खुले रूप में या छिपकर, अनेक जीवों की हिंसा करना, असत्य और झूठ, डींग मारना, धोखाबाजी, दगा-कपट, प्रपंच, विश्वासघात, चोरियाँ करना, अब्रह्म, परस्त्री-धेश्या गमन करना, विकारी नजरें करना, अति मोह, ममत्व और मूर्छा में आसक्ति रखना, अन्य को त्रास देना, अनेक पापाचरण करना, महाआरंभसमारंभवाले असंख्य पापों का आचरण करना ऐसे अनेक पाप-अपराध हुआ ही करते हैं जो कायदे के अनुसार अपराध नहीं गिने जाते, उन्हे तो मानव जाति की तरफ से सजा हो या न हो, कोई बार सबूत के अभाव में खूनी होने पर भी मुक्त हो जाए तो क्या उन्हें अपराध की सजा कुछ भी नहीं होगी ? जवाब-ऊपर के चारों प्रश्नों का जवाब एक ही और वह यह कि अपराध के अनुसार (प्रमाण में) अगर सजा न हो तो सजा न्यायी कैसे मानी जाए? और अपराधी होने पर भी सजा न हो तो यह भी कैसे चल सकता है ? राजसत्ता में चाहे जैसा चलता हो लेकिन कर्मसत्ता' नाम की एक अदृश्य महासत्ता बैठी है कि जहाँ पुन्य-पाप सबका अद ल इन्साफ अवश्य होनेवाला है / इस में से इस दुनियाका कोई भी मनुष्य छटक नहीं सकेगा। अस्तु / तब मानवजाति के पास तो मात्र अंतिम कोटि की सजा अगर कोई भी हो तो देहांत दंड या फांसी की ही है। उस से अधिक है नहीं / एकबार फांसी हुई फिर उस देह का चैतन्य नष्ट हो जाता है / अंदर रहा हुआ सजा भोगनेवाला जीव अन्य योनि में जन्म लेने दौड़ पडता है; क्यों कि मानव (और पशु )जातिका शरीर औदारिक प्रकार के अणुओं का बना है और ये अणु एक बार चैतन्य विहीन बने कि फिर उस देह के अणु वहाँ चैतन्यवाले बनते नहीं हैं कि जिस से पुनः फांसी की सजा हो सके / यह स्थिति तो नरक के देह की ही है, अतः वहाँ पर्याप्त सजाओं के पात्र बन सकता है / तब पुनः प्रश्न यह होता है कि ऐसे भयंकर पापों की सजा है ही नहीं क्या? इसका जवाब यह है कि-सजा है / जरूर है। अगर न हो तो यह सृष्टि भयंकर पापों और भयंकर मानवीओं से खदबदने लगे, यावत् उजड बन जाए | तब सजा कहाँ और कैसी है ? तो इसका जवाब भारत की संस्कृति के बहुतेरे धर्मशात्रों एक ही देते हैं कि-सजा भोगने के लिए एक स्थान जरूर है / भले वह दृश्य नजर से अदृश्य हो, मगर वह है ही और वह भूगर्भ-पाताल में ही है, इसे 'नरक' शब्द से पहचाना जाता है / पापी मनुष्यों के पापों का भार ही उन्हें स्वयं वहाँ खींच जाता है अर्थात् कर्मसत्ता उन्हें नरक के जेलों में सीधा ही धकेल देती है। ऐसे जेलो एक नहीं लेकिन सात हैं / हरेक जेल की सुविधा-व्यवस्था भिन्न-भिन्न है। प्रथम नरक से दसराभयंकर. दूसरे से तीसरा भयंकर, वहाँ अधिक दुख, कष्ट, त्रास, यातनाएँ भोगने का इस तरह उत्तरोत्तर सातों नरको-जेलो अधिक भयंकर और त्रासदायक हैं इन सातों नरकों को 'भूगर्भ जेल' से संबोधित किया जा सकता है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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