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________________ * भिन्न भिन्न कारणाश्रयी से होती हुई गति * . जिस जीवने पूर्वभवमें अग्निस्नान ( जल मरना) किया हो अथवा उसका किसीने खून किया हो, छेद किया हो ऐसे जीव नरकायुप्य पाकर कुछ कम संक्लिष्ट परिणाम स्वरूप उत्पन्न होते हैं। ऐसे जीवों को उपपात समय पर जन्मान्तर से प्राप्त अशाताकर्म उदय प्राप्त नहीं करता, साथ ही उस समय क्षेत्रकृत, परमाधामिक कृत या अन्योन्यकृत अशाता भी विद्यमान नहीं होती अतः उस समय शाताका अनुभव करते हैं। दूसरा, किसी मित्रदेवकी सहाय से, जैसे नरक में दुःखी होते कृष्ण को देवलोक में गए हुए बलरामने देखकर पूर्व के प्रेमवश उनकी पीडा का शमन किया था, उसी तरह कोई मित्रदेव पीडा का शमन करके शाता समर्पित करता है, किन्तु पीडा में मिली यह शान्ति अल्पकालीन ही होती है, अधिक समय नहीं टिकती; क्यों कि ये देव अति बीभत्स तथा अशुभ स्थान में अधिक समय नहीं टिकते। शाता पूर्ण होने पर तत्रवर्ती पीडाओंका पुनः प्रादुर्भाव होता है। तीसरा, कुछ हलुकर्मी नारक तथाविध शुभ निमित्त को प्राप्त करके जब सम्यक्त्व पाते हैं तब उन्हें, पूर्वभव में क्षायिक सम्यक्त्वादि विशिष्ट गुण को साथ में लेकर आए हों, इनको जिनेश्वरदेव आदि विशिष्ट पुरुषों के गुणों की अनुमोदनासे शुभअध्यवसाय होनेसे, महानुभाव जिनेश्वरदेवके जन्म, दीक्षादिक पांचों कल्याणकों के प्रसंग में, और साताकर्म के उदय से भी ये नारक जातिअंधको चक्षु मिलने से जैसा सुख प्राप्त हो, वैसा सुख स्वल्पकाल पाते है। इतना ही नहीं लेकिन साथ ही कोई कोई उत्तम नरकजीव सम्यक्त्व प्राप्त होने के वाद, पाप का पश्चात्ताप करके अध्यवसाय की विशुद्धि में बढते तीर्थकरनामकर्म भी उपार्जन करते हैं। सचमुच आत्मा की शुभाशुभ भावना की ही बलिहारी है। [252 ] (प्रक्षेपक गाथा 63) अवतरण-अलग अलग जीवों के अध्यवसाय की विचित्रता से होती गति का नियमन बताते हैं। '. असन्नि सरिसिव-पक्खी-सीह-उरगित्थि जंति जा छट्ठी। कमसो उक्कोसेण, सत्तम पुढवीं मणुअ-मच्छा // 253 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 253 // ... विशेषार्थ-असंज्ञी ( मन रहित ) समूच्छिम (गर्भधारण किये बिना उत्पन्न होते) / / 13 / /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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