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________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . पंचेन्द्रिय तिर्यच नरक के योग्य अध्यवसाय को प्राप्त करके नरक में जाए तो अवश्य पहले ही नरक में जाए, उससे आगे आनेवाले नरक में जाते ही नहीं हैं। उस में भी वहाँ वे उत्कृष्ट से पल्योपम के असंख्यातवें भाग के आयुष्य को लेकर अथवा जघन्य से दस हजार वर्ष के आयुष्य को लेकर उत्पन्न होते हैं। पहले नरक में और साथ ही न्यून आयुष्य लेकर उत्पन्न होते, होने से उन्हें पूर्वभव में नरकायुष्य के बन्ध के समय अधिक क्रूर अध्यवसाय होते नहीं हैं अतः ही वे अल्प दुःख के स्थानक में उत्पन्न होते हैं। इतनी विशेषता है। __दूसरे गर्भज भुजपरिसर्प वे चंदनगोह, पाटलागोह नेवला आदि प्रमुख जीव, गर्भावास में मृत्यु को पाते शायद नरक में अगर जाए तो यावत् दूसरे नरक तक ( अर्थात् . कोई पहले में, कोई संक्लिष्ट अध्यवसायी दूसरे में इस तरह दोनों में जा सकते हैं। गीध, बाज आदि मांसाहारी गर्भज पक्षी पहले से लेकर यावत् तीन नरक तक जा सकते हैं। सिंह, चीता व्याघ्र इत्यादि हिंसक गर्भज चतुष्पद पहले से लेकर यावत् चौथे नरक तक जा सकते हैं। उरपरिसर्प अर्थात् पेट से चलनेवाले हरएक जाति के आसीविषदृष्टि विषादिक सर्पकी गर्भज जातियाँ लें, ये यावत् पाँचवें नरक तक जा सकते हैं। ___ महारंभी और अत्यंत कामातुर ऐसा चक्रवर्तीका स्त्रीरत्न आदि स्त्रियां पहले से यावत् छठे नरक तक ही जाती हैं। ___ महापाप का आचरण करनेवाले, महारंभ, महापरिग्रह युक्त गर्भज मनुष्य और गर्भज ऐसे तंदुलमत्स्यादिक जलचर जीव अति क्रूर-रौद्र अध्यवसाय को प्राप्त होते उत्कृष्ट से सातवें नरक तक भी जाते हैं। इस तरह उत्कृष्ट गति कही। जघन्य से वे रत्नप्रभा के प्रथम प्रतर में उत्पन्न होते हैं, और मध्यम गति सोचें तो जिन के लिए जिस जिस नरकगति का नियमन बताया उससे पूर्व और रत्नप्रभाके प्रथम प्रतर से आगे किसी भी प्रतर में उत्पन्न हो यह समझना। [253 ] अवतरण-प्रायः नरक से आए पुनः नरकगति योग्य जीव कौन हों? यह कहते हैं। 377- समूर्छिम मनुष्य तो अपर्याप्तावस्थामें ही मृत्यु पाते होने से उन्हें नरकगति का अभाव होने से 'असन्नि' पदसे मात्र तिर्यंच ही अपेक्षित हैं। 378 पापिनी स्त्री चाहे जितने कुकर्म करे परंतु जातिस्वभाव से पुरुष को जो सातवें नारकी प्रायोग्य अध्यवसाय प्राप्त होते हैं वैसे तो उसे होते ही नहीं हैं जिससे 'स्त्री की अपेक्षा पुरुष. का मन अधिक संक्लिष्ट हो सकता है' यह सिद्ध होता है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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