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________________ 388 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-२०० विश्वके प्राणियोंको तमाम प्रवृत्तियोंके अन्तमें सुख तथा दुःख इन दोनोंका अनुभव नजरके सामने आता है। और इन सुख दुःखके भी असंख्य प्रकार बन सकते हैं, लेकिन इन्हें सिर्फ दो या तीन विभागों में बाँटें तो जघन्य और उत्कृष्ट अथवा जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट-इस तरह बाँट सकते हैं। इनमें जघन्य सुखका स्थान तिर्यचोंमें, मध्यम मनुष्यों में और उत्कृष्ट देवलोकमें रहा है। __ अब चारों गतियोंके जीव हमेशा शुभाशुभ, पुण्य-पाप, धर्म या अधर्म, अच्छी या बुरी-दोनों प्रकारकी प्रवृत्ति कर रहे हैं तो उनका फल भुगतनेके स्थान भी चाहिए कि नहीं ? ( यहाँ नरक-सिद्धिकी बात नहीं है अतः उसे छोड़कर सिर्फ देवलोककी सिद्धिके / विषयमें ही विचार-विमर्श करेंगे।) जब किसी एक जीवने जघन्य या उत्कृष्ट शुभ एवं सुकृत कर्म किया है, तब उसका फल भुगतनेका स्थान भी अवश्य होना ही चाहिए; तो जघन्य फल भुगतनेका स्थान मनुष्य तथा तिर्यच गति है और प्रकृष्ट फल भुगतनेका स्थान देवगति है। प्रश्न-तो क्या इस लोकमें चक्रवर्त्यादिकी साह्यबी (वैभव ) भोगनेवालेको हम प्रकृष्ट सुखी नहीं मान सकते कि जिससे हमें किसी अदृष्ट ऐसे स्थानकी कल्पना करने तक दौड़ लगानी पड़ती है ? ____ उत्तर-चक्रवर्ती आदि मनुष्य भले ही सुखी है, फिर भी वह सर्वथा सुखी तो नहीं है। जब हमें तो प्रकृष्ट पुण्यका फल मात्र सुख ही हो ऐसा स्थल चाहिए, तब कोई चक्रवर्ती भी ऐसा नहीं मिलता है कि जहाँ दुःख रहा ही न हो। और मानवजाति इष्टानिष्ट द्वारा वियोग-संयोग, जरावस्था, रोग-शोकादिकसे कुछ न कुछ दुःखी होती ही है। वे आयुष्यको लेकर भी कंगाल स्थिति भुगतते हैं। तभी कहीं पर ऐसा योनि-जन्म या स्थान जरूर होना चाहिए कि जहाँ केवल सुख ही सुख वर्तित हो और वैसा स्थान तो एक मात्र देवयोनि ही है। जहाँ नहीं होते रोग, प्रायः नहीं होते प्रतिकूल संयोग, वहाँ तो अक्षय समृद्धि तथा विपुल वैभव भरे पडे मिलते हैं। वहाँ नित्य युवावस्था और पल्योपम तथा सागरोपम काल जितना दीर्घ आयुष्य भी है। मानवसुलभ तुच्छता और पामरताका जहाँ सर्वथा अभाव है और पौद्गलिक सुखकी पराकाष्टा (चरम सीमा) प्रवर्तमान है। इसी जगत में जिस प्रकारसे कोई एक पाई सुखी, दो पाई सुखी, एक आना सुखी या दो आने सुखी यों बढ़ते-बढ़ते सौ गुने, हजार गुने सुखी होते हैं वैसे पौद्गलिक सुखकी अन्तिम पराकाष्टावाले (चरम सीमावाले ) जीव भी होने ही चाहिए। और अगर इसे जब दृष्ट दुनिया में न देख सकें तब उनका कोई दूसरा स्थल तो मानना ही पड़ेगा और वैसा अगर कोई स्थल भी है, तो वह है देवलोक /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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