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________________ छठ्ठवाँ परिशिष्ट और स्वर्गलोककी सिद्धि ] गाथा-२०० [387 ॥श्री कलिकुण्डपार्श्वनाथाय नमः / / Bamcenramcarcancercancarnampancarcane चौथे वैमानिकनिकायाश्रयी छट्ठवाँ परिशिष्ट (6) स्वर्गलोक क्या है सही ? वर्तमान युगकी सुशिक्षित मानी जानेवाली और बुद्धिप्रधान होनेका दावा करनेवाली मानव जाति जितना प्रत्यक्ष देख सकती है या अपने प्रयोगसे जितना भी साध्य बना सकती है मात्र उतना अस्तित्व ही माननेके लिए तैयार हैं। इसमें पश्चिमी शिक्षा-संस्कारोंने भी हिस्सा लिया है, लेकिन जितना प्रत्यक्ष दिखायी दे उतना ही सत्य (सच्चा) और शेष सर्व झूठ ऐसी मान्यताएँ तो, ऐसे माननेवालोंके लिए भी अनेक प्रसंगसे बाधक बन सकती है, फिर भी खास करके धार्मिक बाबतोंमें इन मान्यताओंको महत्त्वका स्थान देते हैं तथा इसकी आड़ करते हैं, लेकिन यदि गहरायीसे सोच-विचार किया जाये तो आत्महिताहितकी बाबतमें ये मान्यताएँ सच ही आत्मघातक ही दिखायी पड़ेगी। ___भारतीय जैन, वैदिक तथा बौद्ध इन तीनों परम्पराओं में परलोकके अस्तित्वका स्वीकार किया गया है। तो इन तीनों संस्कृतिके प्रणेता, उत्तराधिकारी और वाहक (प्रवर्तक) ये सभी विचारशून्य होंगे क्या ? कभी नहीं / वर्तमान दुनियाके लोग ही बुद्धिवान् हैं और भूतकालके लोग नहीं थे ऐसा कोई कह सकेंगे क्या ? हरगिज ( कभी ) नहीं। अस्तु / ... दूसरी बात वे यह करते हैं कि-नरक और स्वर्ग यह तो शास्त्रों या धर्मगुरुओं द्वारा उपस्थित की गयी मात्र कल्पित मान्यताएँ ही है। इन्होंने 'नरक' समझाते हुए लोगोंके सामने बड़ा हाऊ ( भयंकर भय ) उत्पन्न कर दिया है तो स्वर्ग दिखानेके लिए बड़ा प्रलोभन भी बताया। यह तो जनताको धर्ममें खींच लानेके लिए उनकी एक चाल . . मात्र है। वरना वास्तविक रूपमें देखेंगे तो स्वर्ग या नरक जैसी कोई चीज है ही नहीं / और जो कुछ भी है उसे आप अपनी आँखोंके सामने देख सकते हैं। इसके अलावा दूसरी सृष्टि है ही नहीं, अतः परलोक सम्बन्धी जो बाते हैं वे सब मिथ्या है एसी प्ररूपणा करते हैं। ___ परन्तु यह धर्मशास्त्र, तत्त्वज्ञान या वास्तविक विचारणासे अनभिज्ञ तथा संसार रसिकोंकी कल्पना मात्र है। सर्वज्ञोंने चार गति बतायी हैं / 1. मनुष्य, 2. तिर्यंच, 3. देव तथा 4. नारक / इनमें प्रथमकी दो गतियाँ प्रत्यक्ष हैं और शेष दोनों परोक्ष। प्रथमकी दोनों गतियोंके लिए 'इहलोक' शब्दका प्रयोग किया जाता है और तदनन्तर दोनोंके लिए. 'परलोक' शब्दका प्रयोग किया जाता है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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