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________________ छट्ठा परिशिष्ट और स्वर्गलोककी सिद्धि ] गाथा-२०० [ 389 साथ ही सूरज, चन्द्र आदिको भी हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं, और वे क्या हैं ? तो वे हैं देवोंके तेजस्वी रत्नमय गमनशील विमान। और अगर विमान हैं तो उनके चालक भी जरूर होंगे ही और जो चालक हैं वे देव ही हैं। साथ ही कितने ही तपस्वियों एवं महर्षियोंके तपोबलके प्रभावसे देवों द्वारा प्रत्यक्ष बननेके कई प्रसंग भी हम सुन चुके हैं। विद्या मन्त्र-यन्त्रके प्रभावसे भी देव प्रत्यक्ष बननेके तथा उनके द्वारा अनेक कार्यसिद्धियाँ पानेके शतशः (सैंकड़ो प्रकारके) दृष्टांत (मिसाल) सुनते हैं और वर्तमानमें भी विशुद्ध अनुष्ठान-क्रियाके बलसे दैविक सहायता तथा सिद्धियाँ मिलनेके तथा स्वप्नमें दर्शन या बातचीत करनेके प्रसंग भी सुनते हैं। साथ ही हम मनुष्यमें भूत-प्रेत-जीन-झंड इत्यादि भूत बाधक व्यक्तियोंको (भूत या भूतोंके आवेशवाले ) देखते हैं; तो वह क्या है ? वह देव प्रवेश ही है। अन्यथा जिस चीजका मूल व्यक्तिको ज्ञान नहीं होता ऐसी अज्ञात चीजें और गुप्त रहस्योंको (अपने आवेशके बाद ) वे कहाँसे कह-बता सकते हैं ? इसके अलावा तप-ज्ञानादिक धर्मकी क्रियाका उत्कृष्ट फल भुगतनेके लिए भी ऐसी गतिके अस्तित्वका स्वीकार करना पडेगा ही और 'देव' यह 'घट' पदकी तरह व्युत्पत्तिमान विशुद्ध पद है। इस लिए 'देव' जैसी व्यक्तियाँ अदृष्टलोकमें होनी ही चाहिए। उपर्युक्त सभी कारणों पर विचार-विमर्श करनेवाले आस्तिक व्यक्तियों में अब देवगतिके अस्तित्वके विषयमें कुछ भी शंका रहेगी नहीं। वैमानिक निकायवर्ती नौ लोकान्तिक जो देव हैं वे पाँचवें ब्रह्मकल्पवर्ती तीसरे रिष्ट नामक प्रतरमें आयी हुी अष्टकृष्णराजियोंके मध्य-मध्य भागोंमें आए हुए विमानोंमें बसते हैं। उन्हें ३५°एकावतारी भी कहे गए हैं अतः उनका लोकान्तिक ' नाम भी सान्वर्थक माना जाता है। इसके अतिरिक्त विषय वासना रहित होने के कारण इन्हें 'देवर्षि ' शब्दसे भी सम्बोधित किया जा सकता है। इन देवोंमें छोटे-बड़ोंका व्यवहार न होनेसे सभी अहमिन्द्र हैं। वे सभी तीर्थंकरों द्वारा गृहत्याग करनेके समयसे पूर्व उनके पास आकर प्रभुको प्रणाम करके, धर्मतीर्थ प्रवर्तन३५१ करनेकी बिनती करते हैं, जो यह अपना शाश्वतिक आचार है। 350. मत-मतांतरसे सात-आठ भव / 351. बौद्धोंके विनयपिटकमें सहपति ब्रह्मा आकर बुद्धसे अपनी ज्ञानप्राप्तिके बाद लोककल्याणार्थक उपदेश करनेकी प्रार्थना करते हैं, ऐसा कहा गया है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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