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________________ 380 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 195-199 दो 34 पढमकप्पपढमं, दो दो दो बीअतइयगचउत्थिं / चउ उवरिम. ओहीए, पासंति अ पंचमि पुढविं // 195 / / छढि छग्गेविज्जा, सत्तमिमियरे अणुत्तरसुरा उ / किंचूणलोगनालिं, असंखदीवुदहि तिरियं तु / 196 / / बहुप्रयरं उवरिमगा, उड्ढे सविमाणचूलियधयाई / उणद्धसागरे संख-जोयणा तप्परमसंखा // 197 / / पणवीस जोयणलहू, नारय-भवण-वण-जोइकप्पाणं / गेविज्जणुत्तराण य, जहसंखं ओहिआगारा ||198 / / .. तप्पागारे-पल्लग,-पडहग-झल्लरी-मुईग-पुप्फ-जवे / तिरियमणुएसु ओही, नाणाविहसंठिओ भणिओ // 199 / / गाथार्थ-पहले दो कल्पके देवता अपने अवधिज्ञानसे प्रथम नरक पृथ्वी तकका क्षेत्र (अधो) देख सकते हैं, उसके बादके दूसरे दो कल्पके देव दूसरे नरक तक, बादके दो कल्पके देव तीसरे नरक तक, तदनन्तर दो कल्पके देव चौथे नरक तक और बादके चार कल्पके देव पाँचवीं नरकपृथ्वी तकके क्षेत्रको देख सकते हैं। // 195 // , तदनन्तर छः अवेयकके देव छट्ठवें नरक तक और उसके बादके ऊपरि तीन अवेयकके देव सातवीं नारक पृथ्वी तक, साथ ही अनुत्तर देव कुछ न्यून प्रमाण लोकनालिकाको देखते हैं। साथ ही सौधर्मादिक सभी देव तिच्छ असंख्याता द्वीप-समुद्रोंके क्षेत्रको देख सकते हैं / // 196 // यहाँ फर्क इतना है कि उनके उसी क्षेत्रके ऊपर-ऊपरके कल्पवाले देव, तिच्छ क्रमशः नीचे-नीचेके कल्पवाले देवोंसे अधिक विशुद्ध-विशुद्धतर अवधिज्ञानके प्रभावसे अधिक-अधिकतम और सर्वकल्पगत देव तो अपने-अपने विमानकी चूलिकाकी धजा तक ऊँचा देख सकते हैं। और इसमें भी आधे सागरोपमसे न्यून आयुष्यवाले तिच्छृ संख्य योजन क्षेत्रको देख सकते हैं और उससे अधिकायुष्यवाले देव असंख्य योजन तक देख सकते हैं / // 197 // लघु आयुष्यवाले देव तिच्छु 25 योजन तक देख सकते हैं / नारकी, भवनपति, 346 दो कप्पपढमपुढवि-इति पाठांतरं /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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