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________________ चारों गतिके जीवोंका अवधिज्ञानका आकार ] गाथा 195-199 [381 व्यन्तर, ज्योतिषी, बारह कल्प, अवेयक तथा अनुत्तर देवका यथासंख्य अवधिज्ञान क्षेत्रका आकार निम्नानुसार है / / / 198 / / ____ जहाज (जलयान ), प्याला, पटह, झालर, मृदंग, पुष्पचंगेरी और यव (जव ) अर्थात यव नालिकाकारका होता है। तिर्यचों तथा मनुष्योंका अवधिज्ञान छोटा-छोटा (विविध) प्रकारके संस्थानवाला बताया गया है / // 199 // विशेषार्थ-सिद्धान्तमें मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवल ये पाँच ज्ञान बताए हैं / इन ज्ञानों में सभी ज्ञानोंका समाविष्ट हो जाता है। एक एक ज्ञान क्रमशः बढ़ियाबढ़तर है। इनमेंसे पहले दो ज्ञान हरेक जीवमात्रमें न्यूनाधिकपनसे होते ही हैं और इतनी भी ज्ञानचेतनाके कारण ही जीव, जीवरूप पहचाना जाता है; अन्यथा वह अजीव ही है। साथ ही अवधि आदि तीन ज्ञान विशिष्ट गुणकी भूमिका पर पहुँचनेके बाद ही प्राप्त होता है। इनमें अंतिम केवलज्ञान तो चौदह राजलोक तथा अलोकके सभी पदार्थों को आत्मसाक्षात् दिखलानेवाला है, अस्तु / अब यहाँ पर सिर्फ अवधिज्ञानका विषय ही जरूरी होनेसे अन्य चर्चाको छोड़कर उसे ही समझेंगे / ____ अवधिशान = अवधि अर्थात् मर्यादाशील जो ज्ञान है वह / अब मर्यादा किसकी ? तो रूपी और अरूपी इन दोनों प्रकारके पदार्थों से सिर्फ रूपी पदार्थका ही आत्मसाक्षात्कार * कराके वह मर्यादित बना है / यह ज्ञान अनुगामी आदि छः भेद अथवा असंख्य और अनन्त भेदोंसे प्राप्त होता है / इस ज्ञानका ज्ञानी (मालिक) अपने स्थान पर बैठकर ही जिस चीजको देखनेकी इच्छा है वहाँ उपयोग (ध्यान देना) करना पड़ता है। यह ज्ञान बहुत ही रहस्यमय (भेदयुक्त) और क्षेत्र सीमित तथा विभिन्न रीतिसे उत्पन्न होनेवाला है / यह ज्ञान भवप्रत्ययिक और गुणप्रत्ययिक ऐसे दो प्रकारसे उत्पन्न होता है। देवोंमें भवप्रत्ययिक ज्ञान होता है, क्योंकि देवभवमें उत्पन्न होते ही उसका उदय होता है / यह भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कौन-से देवोंमें ? किस प्रकार ? कितनी मात्रामें मिलता है ? उसे बताते हैं। - उत्कृष्ट अधौअवधिक्षेत्र-अब सबसे पहले उत्कृष्ट विषयके बारेमें कहना होनेसे प्रन्थकार प्रथम वैमानिक निकायाश्रयी अधःक्षेत्रमर्यादाको बताते हैं / प्रारम्भके दो कल्प - सौधर्म तथा ईशानकी ३४७उत्कृष्टायुषी देव-देवियाँ (तथा सामानिकादि देव ) अपने प्राप्त ज्ञानसे नीचे पहली रत्नप्रभा नरकपृथ्वीके अन्त तकके सभी रूपी पदार्थोंको देखनेके लिए शक्तिमान है / सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पके उत्कृष्ट आयुष्यवाले ___347. जहाँ कल्पयुगल होता है वहाँ एकसे दूसरे कल्पके देव उसी क्षेत्रको विशुद्ध रूपसे देखते हैं ऐसा समझें /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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