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________________ 366 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१८४ क्योंकि यह आहारपर्याप्ति (एक समय रूप है और उसके ) पूर्वकी अपर्याप्त अवस्था पर वह अनाहारक है, क्योंकि उस समय जीव विग्रहगतिमें (मी) होता है / साथ ही ३३४स्वयोग्य सर्वपर्याप्ति पर अपर्याप्त (अपूर्णता ) पन भी न ग्रहण करें, क्योंकि शरीरपर्याप्ति बाद जीव किंचित् अंगोपांगयुक्त और स्पर्शेन्द्रियकी शक्तियुक्त बना होनेसे वह अंग-प्रत्यंगोंसे सम्पूर्ण रूपमें लोमाहारसे पुद्गल ग्रहण योग्य होता है। इसलिए जो लोग स्वयोग्य सर्व पर्याप्तिसे अपर्याप्ता जीव ओजाहारी होते हैं ऐसा जो कहते हैं यह सर्वथा अयोग्य है ऐसा संग्रहणी टीकाकारका कहना है / लौमाहार-शरीर पर्याप्ति पूर्ण होते ही लोमाहार ग्रहण योग्य शरीरशक्ति अमुक अंशमें खील उठती है, अतः वह शरीर पर्याप्ति पर पर्याप्त होनेके बाद जीव स्पर्शेन्द्रियसे ही लोमाहारका ग्रहण (जान-अनजानमें ) करते हैं / यह आहार पर्याप्त अवस्थामें प्राप्त होनेसे यावज्जीवपर्यंत सतत हो सकता है। साथ ही यह लोमाहार (रोम, रोयें, रोंगटे द्वारा. आहार.) शरीरपर्याप्ति पर. पर्याप्त और मतान्तर पर स्वयोग्य सर्व पर्याप्ति पर पर्याप्ता एकेन्द्रिय. नारक तथा देवोंको भी होता है, शेष सभी शरीरपर्याप्ति पर पर्याप्ता, स्वयोग्य सर्व पर्याप्ति पर पर्याप्ता विकलेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय सभी जीव लोमाहारी तथा प्रक्षेपाहारी दोनों होते हैं / इनमें लोमाहारका सिलसिला बना रहता है और प्रक्षेपाहार अर्थात् कवलाहार कदाचित् हो अथवा न भी हो (अर्थात् प्रक्षेपाहारका ग्रहण काल भी लोमाहारवत् है)। , उपरोक्त कथनानुसार लोमाहार पर्याप्तावस्थामें सभी जीवोंको यावज्जीवपर्यंत समय समय पर शुरू ही रहता है / अगर तीनमेंसे एक भी आहार सतत न हो तो जीवको समय समय पर जो आहारी कहा गया है वे न रहे और इसलिए मध्य-मध्य (बीच-बीच )में अनाहारपन आ जाता है, जो कि यह अघटित है। . शंका-अब किसीसे अगर यह शंका हो कि देव-नारकादिको समय समय पर लोमाहारी जो कहा गया है तो देवादिकके आहारका जो विशिष्ट अन्तर पूर्व पर बताया गया है वह किस प्रकार घटेगा ? ___समाधान- 'मनोभक्षी' देवोंका लोमाहार जो सतत रहा है उसे सामान्यतः अनाभोग (अनिच्छा ) रूप जानें और अमुक दिन या पक्षान्तिक आहार जो मिलता है उसे विशिष्ट तथा आभोग (इच्छा)पूर्वक जानें (जिसे इसके बादकी गाथामें कहा जायेगा)। ये देव अपने महान् पुण्योदयसे मनसे कल्पित स्वशरीरपुष्टिजनक, इष्ट आहारके शुभ पुद्गलोंको समग्र स्पर्शेन्द्रिय कायासे ग्रहण करके शारीरिक रूपमें परिणमाते हैं / जब कि नारकोमें भी 334. सूत्रकृतांगवृत्ति पृष्ठ ३४३में—केचिद्व्याचक्षते... वाला पाठ देखिए /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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