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________________ तीन प्रकारका आहारका स्वरूप ] ___गाथा-२८४ [365 ओयाहारा सब्वे, अपजत्त पजत्त लोमआहारो / सुरनिरयइगिदि विणा, सेस भवत्था सपक्खेवा // 184 / / गाथार्थ-अपर्याप्तावस्थामें सर्व जीव ओजाहारी और पर्याप्तावस्था में सभी लोमाहारी होते हैं / देवता, नारकी और एकेन्द्रियके अतिरिक्त शेष सभी जीव प्रक्षेपाहारी होते हैं / / / 184 // विशेषार्थ-'ओज' अर्थात् उत्पत्तिप्रदेशमें स्वशरीर योग्य पुद्गलोंका समूह अथवा ओजस् अर्थात् तैजस शरीर द्वारा जो आहार ग्रहण किया जाता है उसे 33२ओज-आहार कहा जाता है। यह ओजाहार एकेन्द्रिय जीवोंसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके सर्व जीवोंको 333अपर्याप्त अवस्थामें होता है / यहाँ * अपर्याप्त' शब्दसे शरीरपर्याप्ति पूर्ण हो गई न हो वहाँ तक जीवमें अपर्याप्तपन लें, लेकिन पहली ही आहारपर्याप्ति पर अपर्याप्तापन मत समझ लेना, 332. जो नाक, आँख और कानों द्वारा उपलब्ध होकर धातुके रूपमें परिणत होता है वह है ओजस् और जो केवल स्पर्शेन्द्रिय द्वारा उपलब्ध होकर धातुके रूपमें परिणत होता है वह है लोम ऐसा सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा १७३की टीकामें इन्हें मतांतरपूर्वक दर्शाया गया है / ... 333. पर्याप्तिका अधिक वर्णन तो इस ग्रन्थके अन्तमें आयेगा ही, तथापि सामान्यतः पर्याप्ति अर्थात् जीवमें स्थित आहारादिक पुद्गलोंको ग्रहण करके शरीरादिरूप परिणमावनेकी विशिष्ट शक्ति अथवा जीनेके लिए जीवमें बनी रहीं जीवनशक्तियाँ / यह पर्याप्ति आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोश्वास, भाषा और मन आदि छः प्रकारकी होती हैं / हरेक जीव पूर्वभवमें पर्याप्तिनामकर्मके उदयसे यथायोग्य पर्याप्तिका नियमन करके अपने पूर्व शरीरको छोड़कर जब उत्पत्ति प्रदेशमें आता है, कि वहाँ तुरन्त ही आहारके पुद्गलोंको ग्रहण करके आहारपर्याप्तिको परिपूर्ण करता है / तदनन्तर अंगोपांग रूप शरीर पिंडका नियमन करनेके लिए वह जब शरीरपर्याप्ति, उसके बाद क्रमशः छः पर्याप्ति-शक्तिको प्राप्त करता है तब उसे पर्याप्त हुआ ऐसा माना जाता है / उसे इस कार्यको अपने जनमके बाद एक अन्तर्मुहूर्तमें ही करना पड़ता है / हरेक जीव छः पर्याप्ति पूर्ण करें ही, ऐसा नहीं होता है। एकेन्द्रियादिकको 4-5-6 तो यथायोग्य मानी जाती है / अपर्याप्त जीवोंमें भी हरेक जीवको आहार, शरीर तथा इन्द्रिय ये तीनकी पर्याप्ति तो पूर्ण करनी ही पड़ती है। - प्रथमकी आहारपर्याप्ति एक समयकी है, शेष छोटे-बडे अन्तर्मुहूर्त प्रमाणकी है। तीन पर्याप्ति तककी अथवा स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण होनेके पूर्वकी जीवकी सभी अपर्याप्तावस्था गिनी जाती है और पूर्ण होनेके बाद ही इसे पर्याप्त हुआ माना जाता है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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