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________________ किस किस प्रकारका आहार कौनसे जीवोंको ग्रहण योग्य हैं ?] गाथा 184-185 [ 367 उसी तरह ही लेकिन अपने महापापोंके उदयसे अशुभ पुद्गलोंका ग्रहणपरिणमन होता है / इस तरह एकेन्द्रियादिकके लिए भी आभोग-अनाभोगरूप सामान्य तथा विशिष्ट आहार ग्रहण सोच लेना / इस तरह देव, नारक, एकेन्द्रिय आदि प्रक्षेपाहारी नहीं होते हैं। प्रक्षेपाहार-देव-नारकी-एकेन्द्रिय जीव आदिको छोड़कर दोइन्द्रिय, तीइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, तिथंच-मनुष्य इन सर्व जीवोंको इच्छा जनमते ही प्रक्षेपाहार ( कवल) का ग्रहण हो सकता है। फिर भी इस नियमको निश्चित न समझें, क्योंकि ऐसा कदाचित् हो सकता है और नहीं भी हो सकता है; मगर ऐसी सम्भावना समझें / क्योंकि प्रक्षेपाहारका सिलसिला जारी ही रहता है ऐसा नहीं है / यहाँ पर देव, नारकी और एकेन्द्रिय जीवोंका निषेध इस लिए बताया गया है कि यह प्रक्षेप-कवलाहार जिन्हें मुख हों उन्हें ही अथवा भवस्वभाव पर घटित हो तब ही सम्भव बनता है / एकेन्द्रियोंको तो मुख ही नहीं है तथा देव और नारक वैक्रियशरीरी होनेसे मुख होते हुए भी महान् पुण्योदयके बल पर पाए गये भवके कारण मुँह द्वारा आहार ग्रहण करनेकी झंझट होती ही नहीं है / अतः वे सभी लोमाहारी ही है। [184] अवतरण-अब किस-किस प्रकारका आहार, कौन-से जीवोंको ग्रहणरूप है ? इसे बताते हैं। सचित्ताचित्तोभय-रूवो आहार सब्बतिरियाणं / सवनराणं च तहा, सुरनेरइयाण अच्चित्तो / / 185 // . गाथार्थ-सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त (मिश्र) ये आहारके तीन प्रकार हैं। इनमें सभी तिर्यंचों तथा सभी मनुष्योंके लिए तीनों प्रकारका आहार होता है, जबकि देवों तथा नारकीके लिए अचित्त आहार होता है / // 185 // विशेषार्थ-आहारके तीन प्रकार हैं / सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त / इनमें सचित्त वह सचेतनरूप (जीवयुक्त) आहार, अचित्त वह अचेतनरूप (जीवरहित) आहार और सचित्ताचित्त वह (जीवरहित तथा सहित) 33५मिश्रआहाररूप है / . 335. उत्पत्तिस्थानमें प्रथम समय पर (मिश्र) सचित्त आहार होता है, क्योंकि वह स्थान जीवरू। . है इसलिये सचेतनपन है / इसके सिवा जीवोंका जीवयुक्त फलफलादिक मध-मांस-मक्खन-वनस्पत्यादिक जो कुछ चीजोंका आहार है वह सचित्त हैं। इनमेंसे अमुक फलफलादिक वनस्पति द्रव्य कुछ काल पर कुछ रीतिसे (कारणोंसे) अचित्त बन जाते हैं और इसी समय उसका आहरण करना . वह है अचित्त, और जिन फलफलादिकमें सचित्तपन तथा सम्पूर्ण अचित्तपन भी पूर्ण हुआ न हो उस समय उसका अगर उपयोग किया जाये तो इसे ' सचित्ताचित्त आहारका उपयोग किया है' ऐसा कहा जायेगा /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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