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________________ सम्पूर्ण दशपूर्वी, छद्मस्थयति तथा श्रावकका जघन्योत्कृष्ट उपपात] गाथा 156-158 [335 अभाव है, लेकिन चौदहपूर्वका ज्ञान ऐसा विशाल है कि उस ज्ञानसे केवली जैसी अर्थव्याख्या करनेमें समर्थ होनेसे श्रुतकेवली कहलाता है। चौदहपूर्वियों द्वारा रचित ये ३०५शास्त्र भी सूत्र ही कहलाता है। भगवान महावीरके शासनमें शय्यंभवसूरि, भद्रबाहुस्वामी, स्थूलभद्रस्वामी आदि चौदह पूर्वधर हुए हैं। उनके रचित दशवैकालिक प्रमुख ग्रन्थ तथा नियुक्ति आदि शास्त्रको सूत्ररूप माना जाता है / सम्पूर्ण दशपूर्वी आर्य वनस्वामी, आर्य महागिरि प्रमुख इत्यादि द्वारा रचित ग्रन्थ सूत्र कहलाते हैं / क्योंकि वे सम्पूर्ण दशपूर्वी नियमा सम्यग्दृष्टिवान् होते हैं, अतः थोड़ासा न्यून भी दशपूर्वी हो तो उसके ग्रन्थ सूत्र रूप मानते-मनाते नहीं है, क्योंकि उसमें मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों प्रकारके जीव होते हैं, जिससे उसके लिए नियम न हो सके, क्योंकि मिथ्यादृष्टि पदार्थकी गलत व्याख्या-परिभाषा भी कर लेते हैं / अतः उनका कथन सच्चे रूपमें कल्याणकारक कहा नहीं जा सकता / इससे क्या हुआ कि उनका ही सूत्र-वचन मान्य करें कि जिनके रचयिता अगाध बुद्धिके मालिक और सम्पूर्ण विकसित दृष्टिवाले हैं / इस लिए ही तो उनके वचन गम्भीर और रहस्यपूर्ण (अर्थपूर्ण ) होते हैं और वे ही विश्वोपकारक बन सकते हैं / [ 156 ] अवतरण-अब छद्मस्थ यतिका तथा श्रावकका उत्कृष्ट तथा जघन्य उपपात कहते हैं / छ उमत्थसंजयाणं, उववाओ उक्कोसओ सबढे / तेसिं सड्ढाणंपि य, जहन्नओ होइ सोहम्मे // 157 / / लंतम्मि चउदपुब्बिस्स, ताबसाईण वंतरेसु तहा / एसो उववायविही, नियनियकिरियठियाण सव्वोऽवि // 158 / / - 305. चौदहपूर्व अर्थात् क्या ? श्री तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा अर्थगांभीर्य युक्त और बीजबुद्धिनिधान लब्धिसम्पन्न श्री गणधरमहाराजोंके सूत्ररूप रची गयी जो श्री द्वादशांगी है उन पैकी बारहवें द्रष्टिवाद नामक अंगका जो परिकर्म, सूत्र, पूर्वानुयोग, पूर्वगत और चूलिका इत्यादि ऐसे पांच विभाग हैं। उनमें 'पूर्वगत' नामका जो चतुर्थ विभाग है, उसमें चौदहपूर्वका समावेश होता है। इनमें प्रथम पूर्व एक गजराज जितने मसीके ढ़गसे लिख सके उतना बड़ा होता हैं / दूसरा पूर्व दो गजराजोंके प्रमाणरूप, तीसरा पूर्व चार हाथियों के प्रमाण, चौथा पूर्व आठ हाथियोंके प्रमाण जितना इस तरह आगे-आगे द्विगुण द्विगुण हाथी प्रमाण मसीके ढंगसे लिखा जा सके इतना बड़ा हरेक पूर्व होता है ऐसा पूर्वाचार्योंने निर्दिष्ट किया हैं / ऐसे चौदहपूर्वरूप श्रुतको सूत्र और अर्थके द्वारा जो महर्षि जान सकते हैं, उनको 'चौदहपूर्वी ' किंवा 'श्रुतकेवली' कहा जाता है / अतीत-अनागत असंख्य भवका स्वरूप बतलानेकी असाधारण शक्ति भी उनमें होती हैं / वे सभी श्रुतकेवली भगवन्त सूत्रकी अपेक्षासे समान किन्तु अर्थकी अपेक्षासे षट्रस्थानपतित हैं /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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