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________________ 336 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 157-158 गाथार्थ छद्मस्थ यतिका उपपात उत्कृष्टसे सर्वार्थसिद्धमें होता है। यतिका तथा श्रावकका भी जघन्य उपपात सौधर्ममें होता है। // 157-158 // .. विशेषार्थ-यति कहते साधु / वे दो प्रकारके हो सकते हैं। एक तो सम्पूर्ण ज्ञानयुक्त केवली यति और दूसरे अपूर्ण ज्ञानवाले जो मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्यवको यथासंभव धारण करते हैं, वे छद्मस्थ यति। इनमें केवली यति तद्भव मोक्षगामी ही होते हैं अतः उनके उपपातकी विचारणा (चर्चा) ही अस्थान पर हैं। क्योंकि मोक्षमें जानेके बाद उनका पुनरागमन कभी भी होता ही नहीं है। दूसरा उन केवली जो न्यून ज्ञानवाले छद्मस्थ संयमी हैं, गाथामें तो छद्मस्थ शब्द है तो छद्म किसे कहे ? छादयति आत्मनो यथावस्थितं रूपमिति छद्म अर्थात् जो आत्माके सच्चे स्वरूपको ढंके यह है छद्म / तो यह छद्म ढंकनेवाला कौन ? तो शानावरणादि घातिकर्मचतुष्टयं ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय ये चार घातीकर्म हैं। इनमें आवृत्त बने वे छद्मस्थ। जो चौदहपूर्वधर तथा अन्य मुनिगण हैं वे ज्ञान, दर्शन, चारित्रमें रहकर शुभ भावसे जब कालधर्म ( अवसान ) पाते हैं तो उत्कृष्टसे त्रिलोकतिलक समान ऐसे उत्तम सर्वार्थसिद्ध विमानमें उत्पन्न होते (जनमते ) हैं। अब जिन्होंने उत्कृष्टरूपसे चारित्रकी आराधना न करते हुए जघन्यरूपसे ही की है ऐसे यति जघन्यसे सौधर्मकल्पमें, या अन्तमें दो से नौ पल्योपमकी स्थितिवाले देवरूपमें जरूर उत्पन्न होते हैं। इस तरह जघन्य श्रावकपन पालनेवाला श्रावक भी अन्तमें सौधर्मकल्पमें पल्योपमकी स्थितिवाले देवरूपमें उत्पन्न होते हैं। इस गतिकी व्यवस्था साधु श्रावक जो स्वआचारमें अनुरक्त है उसे उद्देशकर ही समझनी हैं। लेकिन अपने आचारसे जो साफ-साफ भ्रष्ट है। जो मात्र पूजानेंकी खातिर ही वेश पहनता है और शासनका उड्डाह (मजाक) करनेवाला है, उन लोगोंकी गति तो उनके कर्मानुसार ही समझ लेना। भले ही बाहरी दिखावेमें वे चाहे जो वैसे हो / [157) दूसरी गाथामें जघन्य उपपातका कथन करते हुए प्रथम गाथामें छद्मस्थयतिमें चौदहपूर्वधर भी गिनाए तथा उनका उत्कृष्ट उपपात सर्वार्थसिद्ध पर बताया, अब छद्मस्थ यति पैकी मात्र चौदहपूर्वधरका जघन्य उपपात लांतक तक होता है परंतु उससे नीचा होता ही नहीं हैं और तापसादि (आदि शब्दसे चरक परिव्राजकादि ) जिसका पहले उत्कृष्ट उपपात आ गया है उसका जघन्य उपपात व्यंतरमें (मतांतरसे भवनपतिमें) होता है। उक्त गाथामें कही गयी सर्व उपपातविधि भी अपनी-अपनी क्रियामें स्थित हो उसके
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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