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________________ 334 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 156 बीजबुद्धिके स्वामी वे उसी समय ही अन्तर्मुहूर्त=४८ मिनट में ही बारह 30 अंग सूत्रोंकी रचना करते हैं। हरेक गणधर उसी तरह ही विधि करके, त्रिपदी पाकर, स्वतन्त्ररूपसे द्वादशांगी रचते है। अतः हरेककी द्वादशांगी स्वतन्त्र होती है, फिर भी उसे शब्दरूपसे ही भिन्न समझे, क्योंकि अर्थसे तो सबकी रचना समान ही होती है, जिससे एकवाक्यता टिक सकता है। ये द्वादशांगी ही उन्हीं गणधरगुम्फित सूत्र हैं। उसे आगम शास्त्रोंसे भी पहचाना जाता है। आगमशास्त्रोंके भी दो भेद किए गये हैं। एक अर्थागम और दूसरा सूत्रागम (या शब्दागम ) / तीर्थंकर आगमका उपदेश करते हैं, अतः वे स्वयं अर्थागमके कर्ता बनते हैं और इस अर्थसे ही तीर्थंकरोंको 304 आगम आत्मागम है। और यह अर्थागम गणधरोंको तीर्थकर द्वारा साक्षात् मिलनेसे. गणधरकी अपेक्षा रूप वह अनन्तरागम ( दूसरी व्यक्ति द्वारा प्राप्त ) है / लेकिन अर्थागमके आधार पर ही गणधर सूत्र रचना करते होनेसे सूत्रागम अथवा शब्दागमके कर्ता गणधर ही माने जाते है और इससे गणधरगुम्फित आगम ही सूत्र कहलाते हैं। .. आगमके अर्थका उपदेश तीर्थंकरोंने दिया है परन्तु उसे सूत्ररूप या ग्रन्थबद्ध करनेका सम्मान तो गणधरोंके पक्षमें ही जाता है। अतः सामान्य भाषामें आगम तीर्थंकर रचित कहा जाता है, परन्तु उसके बदले तीर्थंकरभाषित कहे और गणधर विरचित माने यह ही बराबर है / आगमोंका अर्थमूल भले तीर्थंकरोंके उपदेशमें रहा हो परन्तु इससे वे ग्रन्थके रचयिता बन जाते नहीं है / यहाँ इतनी प्रासंगिक उपयोगी हकीकत बतायी है। . प्रत्येकबुद्ध-संसारकी प्रत्येक किसी भी चीजसे प्रतिबुद्ध हुए हो वह / अर्थात् तीर्थकर परमात्मा या सद्गुरु आदिके उपदेशरूप बिना कोई निमित्त (कारण) संध्या समयके बादलोंके रंग ज्यों बदलते रहते हैं, उसी तरह संसारकी पौद्गलिंक हरेक चीज भी प्रतिक्षण परावर्तनशील है / आज जो वस्तु प्रिय और अच्छी लगती है वही चीज कुछ ही क्षणों के बाद अप्रिय और असार भी बन जाती है, अतः कहाँ कहाँ राग-द्वेष करे ? ऐसा कोई वैराग्यजनक कारण पाकर जो लोग चारित्रवान् बने हो वे / ऐसी लघुकर्मी आत्माओं द्वारा रचित ग्रन्थोंको भी सूत्र कहा जाता है / जिस तरह नमिराजर्षि आदि द्वारा रचित नमि अध्ययन आदि अध्ययन जो हैं। ___श्रुतकेवली-बारहवें अंगका चौथा विभागगत माना गया चौदहपूर्वरूप श्रुत-शास्त्र ज्ञानका जो सम्पूर्ण ज्ञाता हो वह / जो केवली सर्वज्ञ न होकर भी प्रत्यक्ष ज्ञानका भले ही 303. बिना द्वादशांगका आगमश्रुत जिसे अंग बाह्य कहा जाता है, उसके कर्ता स्थविर है या गणधर इसके लिए चूर्णि-भाष्य टीकाकारोंमें काफी मतभेद प्रवर्तते हैं। 304. अत्थं भासइ अरिहा, सूत्रं गंथति गणहरा निउणं / सासणसहियट्ठाए, तओ सुत्त पवत्तई // 1 //
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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