SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यन्तर गति कब प्राप्त होती है ? ] गाथा 153-154 [329 . गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 153 // विशेषार्थ-इस गाथामें बतायी गयी आचरणा स्वयं पापरूप होनेसे उसका सञ्चा फल नरकादि कुगति हो सकता है। परन्तु आयुष्यबन्धके पहले, गाथामें बताये गये आचरणके बजाय स्वभाग्यसे, शुभ निमित्त द्वारा नरकादि गति योग्य संक्लिष्ट-आर्त, रौद्र परिणाम छोड़कर तथाप्रकारकी कुछ शुभ भावना यदि आ जाये तो जीव अनिष्ट कार्य करता हुआ भी शुभ भावनाके योगसे शूलपाणी यक्ष आदिकी तरह व्यन्तरकी शुभ गति प्राप्त करता है। रज्जुग्गह-रस्सीसे जीवका घात करना (जीवको मारना) या किसी भी प्रकारके आंतरिक या बाह्य दुःखसे ऊबकर फंदा डालकर मरना वह / इस प्रकारकी घटनाएँ वर्तमानके विषम समयमें दुःख-क्लेशसे ऊबनेवाले मानवोंमें अधिक दिखायी देती हैं। विसमक्खण-किसी भी आफत-दुःखके कारण विषपान किया हो, परन्तु शुभ भावनाके योगसे व्यन्तरमें जाता है। ऐसे प्रसंग आम तौर पर श्रेष्ठ और सुखी वर्गमें बनते हैं। जल-जलणपवेस-जानकर या अनजानमें जलमें या अग्निमें प्रवेशकर मरनेवाला जीव शुभ भावना पाकर कुमारनन्दीवत् व्यन्तरमें उत्पन्न होता है। ऐसे प्रसंग मध्यम वर्गमें अधिक मिलते हैं। .. तह-छुहदुहओ-तृपा अथवा क्षुधाके दुःखसे पीड़ित जो अपने प्राणत्यागके समय पर शुभ भावनाके योगसे मरता है वह। ऐसा दीन वर्गमें अधिक बनता है। गिरिसिरपडणाउ-किसी महान् दुःखसे पीड़ित साहसिक जीव दुःखसे ऊबकर पर्वतके शिखर परसे नीचे कूद पडे वह। और उक्त कार्य करनेवाले, भैरवजव जैसे पर्वतीय स्थानों परसे खाई (खंदक )में गिरनेवाले मया सुहभावा-मरकर शुभ भावनाके योगसे ही शूलपाणीयक्षवत् (नरकादि गति रूप अति आर्त रौद्र ध्यानका अभाव हो तो) हुंति वंतरिया व्यन्तर होते हैं। शुभ भावनाके अभावसे तो अपने-अपने अध्यवसायानुसार उस-उस कुगतिमें जनमते हैं। [153] अवतरण-अब ज्योतिषी तथा वैमानिक निकायमें उत्पन्न होने योग्य कौन होता है ? . . तावस जा जोइसिया, चरग-परिवाय बंभलोगो जा / जा सहसारो पंचिंदि-तिरिअ जा अच्चुओ सड्ढा / / 154 / / बृ. सं. 42
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy