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________________ 328 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 152-153 / योगसे भवनपति निकायमें उत्पन्न होते हैं। क्योंकि वैरका बदला लेना यह बुरी चीज है। इससे मन हमेशा मलिन रहता है, बदला ले सके या न ले सके तो भी वह अशुभ भावनाके योगसे उपरोक्त गतिको पाता ही है। वे जहाँ जाते हैं वहाँ भी जन्मान्तरके विरोधी संस्कारसे वैरीके प्रति वैर लेनेकी वृत्ति पुनः जागती है। इस तरह वैर परंपराका विषचक्र फिरता (चालु) ही रहता है और अनेक कदर्थनाको पाता है बारबार कर्मबन्धके द्वारा बारबार संसारमें परिभ्रमण करते ही रहते है, अतः प्राणीको कभी भी वैरासक्त न बनकर समभाववृत्ति जगानी चाहिए / वैरका सिलसिला बहुत ही लम्बा चलता है। समरादित्य आदिके प्रसंग उसकी गवाहीरूप है। इसलिए वैरोपशमन तुरन्त ही करके मनको शांत कर देना यही जैनधर्म पानेका फल है। इस तरह उक्त अनिष्ट भावनाके योगसे प्राणी अपनी उत्तम आराधनाको भी दूषितः / बनाकर, उत्पन्न होते जघन्य कोटिके सुअध्यवसायसे असुरोंके रूपमें उत्पन्न हो सकते हैं / / 152] अवतरण-अब व्यन्तर रूपमें किस कारणसे जीव उत्पन्न होता है ? इसे कहते हैं। .. रज्जुग्गह-विसभक्षण-जल-जलणपवेस-तण्ह-छहदुहो। गिरिसिरपडणाउ मया, सुहभावा हुंति वंतरिया // 153 // शुभाशुभ गतिका बन्ध करता है। शुभ अध्यवसाय, शुभ गति और अशुभ अध्यवसाय, अशुभ गति देता है। उस गतिमें भी ऊँच-नीच संपत्तिकी प्राप्ति यह अध्यवसायकी जितनी जितनी विशुद्धियाँ हैं, उन उन पर आधार रखती हैं / चाहे भले ही जीवोंने दारुण पापाचारका सेवन किया हो; परन्तु आरबन्धकाल पर पूर्व पुण्यसे तथाविध शुभालम्बनसे पूर्वकृत पापका प्रायश्चित्त आलोचना ग्रहण इत्यादि किया हो और शुभ अध्यवसाय चलता हो तो जीव चिलातीपुत्र, दृढ़प्रहारी, तामली तापसादिकी तरह शुभ अध्यवसायको पाकर सम्यग्दृष्टिपन प्राप्त करके शुभ गतिमें उत्पन्न हो सकता है। ___ दूसरा यह भी याद रखना चाहिए कि यदि जीवने आयुष्यके चार भागोंमेंसे किसी भी भागसे शुभ गति और शुभ आयुष्यका बन्ध किया हो, उस बन्धके पूर्व या अनन्तरमें किसी अशुभ आचरण किए हो परन्तु उसने शुभ गतिके आयुष्यका बन्ध किया होनेसे उसे शुभ स्थानमें जाना होनेसे पूर्वके संस्कारोंसे शुभ भावना -- जैसी गति वैसी मति' इस न्यायसे आ ही जाती है परन्तु जो आयुर्बन्ध 'जैसी मति वैसी गति 'के न्यायसे अशुभ गतिका किया हो और वन्ध कालपूर्व-अनन्तर शुभ कार्य किये हो तो भी अशुभ स्थानमें जाना होनेसे अशुभ अध्यवसाय प्रायः प्राप्त हो जाता है / संक्षिप्तमें जीवकी जैसी आराधना वैसी उसकी मानसिक स्थिति होती है। आराधना शुभ हो तो सुंदर संस्कार-भावनासे वासित होती है और अशुभ आराधना अशुभ हो तो असुन्दर संस्कार भावनासे-वासित बनती है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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