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________________ 330 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१५४. गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / / 154 // विशेषार्थ-तावस जा जोइसिया–वनमें रहकर अनन्तकाय स्वरूप कन्दमूलादि, भूमिके अन्दर उपजते बटाटा-बेंगन-शकरकन्द-अदरक-लहसुन-प्याज-गाजर आदिका भक्ष करनेवाले अज्ञानी तापस मरकर भवनपतिसे लेकर यावत् ज्योतिषी तकमें उत्पन्न हो सकते हैं। यहाँ उत्पन्न होनेका हेतु उपरोक्त गाथामें बताया है उसे ही जाने / कन्दमूल भक्षक जीवोंकी गतिमें हीनता जरूर आती है, ऐसा यह गाथा पुष्टि भी करती है। किसीको यह शंका उत्पन्न होगी कि इसका क्या कारण ? तो वस्तु ऐसी है कि-कन्दमूल भक्षणमें अनन्तानन्त एकेन्द्रिय जीवोंकी हिंसा होती है। हमारे शरीरमें एक ही जीव है, अतः यह जीव स्वतन्त्र रूपसे शरीरके माध्यमसे क्रिया कर सकता है, जब कि कन्दमूलके किसी भी जातके अति सूक्ष्म भागमें भी अनन्ता जीव होते हैं। तथा उनके बीच एक ही शरीर होता है। शरीर एक और उस एकके ही मालिक अनन्ता, ऐसी विचित्रता और पराधीनता वहाँ है। एक सूईके अग्रभाग जितने बटाटाके अंशमें अगर अनन्त जीव होते हैं तो पूरा बटाटामें कितने होंगे? इसका ख्याल करना। ज्ञानी तों वीतराग-सर्वज्ञ थे। अतः उन्होंने तो पदार्थोंको ज्ञानसे तटस्थभावसे प्रत्यक्ष देखने के बाद जगतके कल्याणके लिए कमसे कम पाप मार्गका भी प्रकाशन करके जगतको सन्मार्ग पर चढ़ानेका सत् प्रयत्न किया है। दूसरी बात यह है कि एक सूईके अग्रभाग पर बहुत-से लाख जन्तु रह सकते हैं ऐसा आजका जड़-विज्ञान कहता है तो चैतन्य वैज्ञानिक भगवान ज्ञानदृष्टिसे आत्मप्रत्यक्ष (बिना प्रयोग ) सूईके अग्रभाग पर अनन्ता जीवोंका अस्तित्व देख सकता है इसमें शंकाका जरा-सा भी स्थान नहीं है / अतः कन्दमूलादिके भक्षणसे अनन्त जीवोंकी हिंसा होती है, इस लिए उसकी गतिमें रुकावट आती है। यद्यपि यह तापस और आगे कहे जानेवाले जीव तपस्यादिक धर्मका पाप कर्म रहित सेवन करे तो वे उससे भी आगे उपज सकते हैं, परन्तु उनमें वास्तविक भेदज्ञानका अभाव होनेसे तप-धर्म करते करते भी पापसेवन तो करते ही है / परन्तु एक तपश्चर्याके समान कायक्लेश आदि अनेक बाह्य कष्ट सहन करनेसे उसके फलस्वरूप ज्योतिषी निकायमें उपज (जनम ) सकते हैं, ऐसा सर्वत्र समझना / ___ चरग-परिवायबम्भलोगो जा–चरक अर्थात् स्वधर्म नियमानुसार चार-पाँच लोग मिलकर भिक्षाटन करे-चरे वह / और परिवाय-परिव्राजक ये कपिलमतके जो सन्त हैं वे / ये चरक-परिव्राजक दोनों यावत ब्रह्मलोक तक उत्पन्न हो सकते हैं। जा सहसारो पंचिंदितिरिअ-पर्याप्ता गर्भज तियंच पंचेन्द्रिय हाथी आदि सहस्रार तक उत्पन्न हो सकते हैं / यह कथन सम्बल-कम्बलकी तरह जो तिर्यंच किसी निमित्तसे या जातिस्मरणसे सम्यक्त्व (सच्चे तत्त्वकी श्रद्धा) और देशविरतिको पा गये हैं उनके लिए
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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