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________________ संसारका कारण कषाय और तपकी महत्ता] . गाथा-१५२ [327 30 अनेक प्रकारके सुख और दुःखके फलोंको योग्य ऐसे कर्म-क्षेत्रको जो खोद निकालता है अथवा आत्माके स्वरूपको जो कलुषित करता है उसे कषाय कहा जाता है। संसारका मुख्य कारण कषाय ही हैं, अतः क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायोंसे मुक्त होनेके लिए अनुक्रममें उसके प्रतिपक्षीके रूपमें क्षमा, नम्रता, सरलता और सन्तोष आदि वृत्तियोंको हृदयमें बहुत कसना / तवेण गारविया-तपसे गौरवयुक्त (गौरन्वित ) अर्थात् अहंकार करनेवाले / कोई भी प्राणी तीव्र पापवृत्तिसे बन्धनयुक्त निबिड-चीकने कर्मोंको भी (तपसा निर्जरा च ) तपोनुष्ठानसे, अवश्य नष्ट कर सकता है / यह तप जो अहंकाररहित हो तो वह उत्तम गतिको पा सकता है। परन्तु उस अनशनादिक तप करनेसे यदि अहंकार आ जाये कि हम तपसी हैं, मुझ जैसा तप करनेवाला. सहनेवाला है कोई ? इत्यादि अहंकारका मद मिलकर इकट्ठा हो गया हो और परभवायुष्यका बन्ध पडे तो भवनपतिका पड़ता है अर्थात् उदय आते ही वहाँ उत्पन्न होता है। वहाँ भी ऊँच-नीचताका आधार भावनाकी विशुद्धि पर होता है। इसलिए प्राणियोंको उत्तम गति पानेके लिए 30 अक्रोधरूपसे क्षमाभावपूर्वक मद रहित तप करना चाहिए, वरना जिस प्रकार जैनेतरके उपवास ‘फरालिया' हुए, वैसे हमारे उपवास 'वरालिया' बन जायेंगे / वेरेण य पडिबद्धा-वैरसे प्रतिबद्ध-आसक्त बने हुए / कोई जीव यदि उत्तम तप धर्मका सेवन करता हो, महान ऋषि-त्यागी हो, परन्तु जो वैर भावसे आसक्त हो कि कब दुश्मनकी खबर लूँ ? ऐसे जीव ३०२परभवायुष्यका बंध करे तो मलिन भावनाके 300. सुह-दुक्ख बहु सहियं, कम्मखेत्तं कसंति जं जम्हा / ___ कलुसंति जं च जीवं, तेण कमाइ त्ति बुच्चंति // [ पन्नवणा सूत्र पद 13] . .. 301. तप गुण ओपे रे रोपे धर्मने, नवि गोपे जिन आण, आश्रव लोपे रे नवि कोपे कदा, पंचम तपसी ते जाण // [ उपा श्री यशोविजयजी ] 302. इतना विशेष समझना कि किसी भी जीवका आगामी गतिस्थानका निर्माण परभवायुष्य बन्धकालमें उत्पन्न होती शुभाशुभ भावना-अध्यवसाय पर आधार रखता है / अब स्वभव आयुष्य प्रमाणमें जीवको आयुर्बन्धके मुख्य चार समय (प्रसंग) आते हैं / प्रथम सोपक्रमी जीवका जितना आयुष्य हो उसके तीसरे भाग पर, दूसरा प्रसंग नववें भाग पर, तीसरा सत्ताईश भाग पर और अन्तिम चौथा निजायुष्य पूर्ण होनेमें शेष अन्तर्मुहूत्त बाकी रहे तब, अर्थात् तीसरे भाग पर परभवायुष्य बन्ध जीवने अगर न किया हो तो उसे नौ पर करे, अगर वहाँ भी न किया हो तो सत्ताईस पर, वरना अन्तर्मुहूर्त्त शेष रहने पर परभवायुष्य बन्ध जरूर करे ही / उस आयुष्य बन्धके कालप्रसंग पर जीवके जिस प्रकारके शुभाशुभ अध्यवसाय हो, तदनुसार वह
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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