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________________ 326 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी .. . [ गाथा-१५२. मिथ्या तप कहा जाता है / क्योंकि वह तप सम्यक्त्व (सच्चा श्रद्धान ) रहित होता है। उस तपसे आत्मा शायद सामान्य लाभ भले ही पा जायँ, लेकिन अन्तमें आत्माको हानिकारक होनेसे निष्फलरूप है / जिस तपमें नहीं होता इन्द्रियदमन, नहीं होता वर्ण-गन्ध-रसस्पर्शादि विषयोंका त्याग, नहीं होता अध्यात्म, नहीं होती सकाम निर्जरा, उल्टा पुष्टिकारी अन्न लेना, इन्द्रियको स्वेच्छासे पोपना, विषयवासनाओंका ज्यादा सेवन, हिंसामय प्रवृत्तिवाले ऐसे २४८पंचाग्नि आदि तप यह बालतप है; तत्त्वसे जीवहिंसाके हेतुरूप है तथापि उसके धर्मशास्त्रानुसार बाह्य दृष्टिसे किंचित् आत्मदमनको करनेवाले तपरूप अनुष्ठान होनेसे सामान्य लाभ मिलनेसे वे द्वीपायन ऋषिकी तरह असुरकुमारादि भवनपति निकायमें उत्पन्न होता है। इसलिए सारे ही आलममें सुप्रसिद्ध ऐसे जैनधर्मके तपविज्ञानको समझकर कल्याणा- ' भिलाषी आत्माओंने उनका आदर करना चाहिए। प्राप्त होती है। ___ कोई एक आत्मा भले साथ साथ स्वशास्त्रानुसार भी तप-धर्मानुष्ठान करता हो, जो अहिंसक, असत्यका त्यागी, स्त्रीसंगरहित, निष्परिग्रही और सद् गुणी हो, कषायहीन हो, मायालु, शांत स्वभाववाला हो, तो जीव शुभ पुण्योत्पन्न उत्तम अध्यवसायोंसे वैमानिकदेवके आयुष्यका बंध करता है, इतना ही नहीं, लेकिन इससे भी अधिक विशुद्धतर-तम दशामें दाखिल होकर मोक्षलक्ष्मीका मालिक हो सकता है। परन्तु तथाविध अज्ञानसे धर्मानुष्ठान करते समय क्रोधादिक कषायोंकी परिणति ऐसी प्रवर्तमान होती है कि निमित्त मिले या न मिले, लेकिन जहाँ-तहाँ क्रोध-गुस्सा-आवेश करता हो, धर्मस्थानोंमें भी धर्म-फसाद करता हो, न करनेके कार्य करता हो, ऐसे मलिन प्रसंग पर यदि आयुष्यका बंध पड जाये, तो भी अमुक सद्गुण-धर्मके सेवनसे असुरकुमारादि भवनपतिमें जनमता है। जो रोषवृत्तिरहित धर्मानुष्ठानका आचरण करें तो प्राणी इससे अधिक सद्गति पा सकते हैं / इसलिए रोषवृत्तिको दूर करना जरूरी है। २४४क्लेशयुक्त मन उसका नाम ही संसार, क्लेशरहित मन उसका नाम है मोक्ष। 298. सच्चा पंचाग्नि तप किसे कहे ? चतुर्णा ज्वलतां मध्ये यो नरः सूर्यपञ्चमः / तपस्तपसिकौन्तेय ! न सत्पञ्चतपः स्मृतम् // 1 // पञ्चानाभिन्द्रियाग्नीनां, विषयेन्धन चारिणाम् / तेषां तिष्ठति यो मध्ये, तद् वै पञ्चतपः स्मृतम् // 2 // [म. भा.] 299. क्लेशे वासित मन संसार, क्लेश रहित मन ते भवपार / [ उपा. यशोविजयजी ]
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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