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________________ 324 ] वृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 149-150 ____ शुद्ध देव, गुरु और धर्म तत्त्वोंकी रक्षा-प्रचारके लिए अनिवार्य कारणसे द्वेष करना पडे तो यह प्रशस्त कोटिका और कुदेव, कुगुरु या कुधर्म तत्त्वोंके लिए करना पड़ता द्वेष अप्रशस्त कोटिका माना जाता है। प्रशस्त कोटिका द्वेष अल्प कर्मबन्धके कारणरूप होते हुए विशेष प्रकारसे पुण्यबन्धको कराता होनेसे इससे शुभ फलकी प्राप्ति और अप्रशस्त द्वेष उससे विपरीत फल देकर विपरीत फलकी प्राप्ति कराता है। इस प्रकार इष्टानिष्ट वस्तुके संयोग-वियोगसे शुभाशुभ राग-द्वेष अध्यवसाय और उसके मन्द, तीव्र, तीव्रतर-तमादिक अनेक प्रकारोंसे जीवके सुख, दुःख, सद्गति या दुर्गतिका आधार रहा है / अध्यवसायकी जनेता मन है अतः संसारमें उन सबके लिए यदि कोई बन्धारणीय, चक्र है तो मन ही है, इसलिए ही आप्त पुरुषोंने कहा है कि 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः'। देवगति प्रायोग्य अध्यवसाय जो आगे बढ़कर अति विशुद्धतर-तम दशा पर पहुँच जाते हैं, तो केवलज्ञान, केवलदर्शन (सम्पूर्णज्ञान) प्राप्त करके, संसारका परिभ्रमण दूर करके, मुक्ति सुखको पाकर, सर्व दुःखोंका अन्त कर सकते हैं / [149] ____अवतरण-चालू द्वारमें अब कौन-कौनसे और कौन-कौनसी स्थितिवाले जीव किस देवलोकमें जाते है ? उसे बताते है / नरतिरि असंखजीवी, सम्वे नियमेण जंति देवेसु / नियआउअसमहीणा-उएसु ईसाणअंतेसु // 150 / / / गाथार्थ-असंख्य वर्षके आयुष्यवाले मनुष्य तथा तिर्यंच सभी नियमा-निश्चे देवलोकमें उत्पन्न होते हैं और वे भी निजायुष्य समान अथवा तो हीन स्थितिके रूपमें ईशानान्त कल्प तक ही उत्पन्न होते हैं / // 150 / / विशेषार्थ-असंख्यात वर्षके दीर्घायुष्यवाले मनुष्य और तिर्यच वे युगलिक ही होते हैं और वे देवगतिमें ही उत्पन्न होते हैं, लेकिन शेष नरकादि तीन गतियोंमें या मोक्षमें उत्पन्न होते नहीं है। साथ ही देवगतिमें भी वे अपनी युगलिक अवस्थामें जितनी आयुष्य स्थिति होती है उतनी स्थिति-आयुष्यवाले अथवा तो हीनायुष्यवाले देवरूप (वैसे स्थानपर) उत्पन्न होते है और इससे उनकी सबसे अधिक गति ईशान देवलोक तक ही होती है, क्योंकि निजायुष्य प्रमाणको अनुकूल स्थिति ज्यादासे ज्यादा ईशान कल्प तक होती है और आगेके कल्पमें जघन्यसे भी दो सागरोपमकी स्थितिसे ही शुरूआत होती है, जब कि युगलिक तो उत्कृष्टसे भी तीन पल्योपमकी स्थितिवाले होते हैं। और इसलिए पल्योपमके असंख्यातवें भागसे असंख्य वर्षके आयुष्यवाले खेचर
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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