SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवका इष्ट और अनिष्ट संयोगके परिणाम ] गाथा-१४९ [323 वियोग इसमें मुख्य हिस्सा लेता है, जिनमेंसे शुभाशुभ काषायिक परिणाम उद्भवते हैं। ___ इष्ट वस्तुके संयोगके लिये 1. अर्थात् जब जीवको जड या चैतन्यादि इष्ट वस्तुका संयोग उत्पन्न होता है तब पहले तो वह बहुत प्रसन्न होता है / और इस प्रसन्नताका अतिरेक उस उस पदार्थमें तन्मय होता हुआ तीव्र-तीव्रतर-तीव्रतम कोटितक पहुँच जाता है / बादमें इष्टकी विशेष प्राप्ति, रक्षण और उपभोगमें मनको तदाकार बनाता है / इस इष्ट साधन रागकी आसक्ति दो प्रकारके साधनोंके प्रति होती है / एक संसारके साधनोंके प्रति और दूसरी मुक्तिके साधनोंके प्रति / संसार साधनोंके प्रति जब होती है तब अप्रशस्त कोटिकी और मुक्ति या आत्माके साधनोंके प्रति जब होती है तब इसे प्रशस्त कोटिकी कही जाती है। जैसे कि कुदेव, कुगुरु और कुधर्म प्रति किया गया राग उसे अप्रशस्त कहा जाता है और सुदेव, सुगुरु, और सुधर्मके प्रति किया गया राग उसे प्रशस्त कहा जाता है। ___प्रशस्त राग वह *शुद्ध-शुभ है। और यदि उसके मूल अर्थमें बराबर हो तो उसके द्वारा जीव शुभ-पुण्य प्रकृतिओंका बन्ध करके देवादिक शुभ गति आदिकी श्रेष्ठताको प्राप्त कर सकता है। जब कि अप्रशस्त राग अशुद्ध-अशुभ है। उसके मूल अर्थमें जब वह घटमान होता है तब जीव उसके अशुभ पाप प्रकृतिओंका बन्ध करके उदयकालमें नरकादि अशुभ गतिको पाता है। .. उपर जिस प्रकारसे इष्ट संयोगके लिए कहा है, वैसा अनिष्ट संयोगके लिए भी समझना है। अनिष्ट वस्तुके संयोगके लिए 2. अर्थात् कि जब जीवको अनिष्ट वस्तु के संयोग मिलते हैं तब चित्तमें अप्रसन्नता उत्पन्न होती है, उसमेंसे खेद ( दुःख, रंज ) जन्म लेता है, उसमेंसे रोष, क्रोध-कलह सभी मलिन तत्त्व जन्म पाते हैं। हृदय द्वेषबुद्धिका आकार लेता है। मानस विरोधी बनता है / मैत्री भावना और क्षमाके आदर्श विलीन होते हैं / मन द्वेषबुद्धि में फँसता फँसता अति दुःखी बनता है और आत्माको संताप और आक्रन्दकी कोटि तक धकेल देता है। परिणामस्वरूप कितनी ही बार न घटनेकी घटनाओंका दुष्ट और भयंकर सिलसिला शुरु होता है। ____ यह द्वेष भावना सत् और असत् या, संसार या मुक्तिके साधनोंके प्रति होती है / जिन्हें ऊपर कहे गये वैसे अप्रशस्त और प्रशस्त इन दो नामसे पहचानेंगे / * यहाँ शुद्ध और शुभ उसे एक ही अर्थवाचकमें समझना है, वरना अपनी तात्त्विक व्याख्यामें ये दोनों भिन्नार्थक वाचक है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy