SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 322
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 322 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१४९ ___ यहाँ एक बात स्पष्ट हो जाती है कि देवलोकके भीतर मात्र पर्याप्ता गर्भज मनुष्य और तिर्यंच यह दो ही जातिके देव उत्पन्न हो सकते हैं, परन्तु उनके सिवा बाकीके नारक-एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय या अपर्याप्ता पंचेन्द्रिय तिर्यंच मनुष्य उत्पन्न होते नहीं, क्योंकि देवभव प्राप्ति प्रायोग्य निर्मल परिणाम उन्हें मिलता नहीं है / इस परसे एक दूसरा रहस्य भी स्पष्ट हो जाता है कि देवलोकमें उत्पन्न होनेके स्थान असंख्य है लेकिन उसमें उत्पन्न होनेवाले उमेदवार मात्र दो ही जातिके जीव हैं / उत्पन्न होनेके स्थान असंख्य है और उत्पन्न होनेवालोंकी संख्या कम हैं। इससे यह निश्चित होता है कि जीवके लिए देवलोककी प्राप्ति दुर्लभ नहीं, लेकिन सुलभ है। जबकि मानवभवकी प्राप्ति सुलभ नहीं लेकिन दुर्लभ है क्योंकि मानवजातकी संख्या मर्यादित अर्थात् संख्याती (29 अंक संख्या जितनी, जैसे कि 2 x 2 = 4 442=8 8x2=16 -इस तरह 96 बार गुना करते जो संख्या आये उतनी) है जब उत्पन्न होनेवाले उमेदवार तमाम गति-जातिके है / जिसके स्थान कम है और उमेदवार भी असाधारण है तब उस स्थानको पाना कितना कठिन होता है यह समझ सके ऐसा है / इसलिए ही आगममें 'दुल्लहे खलु माणुसे भवे' इत्यादि वचन जो उच्चारे गये हैं उनकी यथार्थता सिद्ध होती है / यह बात तो प्रासंगिक कही गयी है / अब मुख्य बात पर आते हैं / देवगतिकी प्राप्तिमें हेतु क्या ? तो गाथामें बताये गये मतानुसार 'अध्यवसाय' विशेष / 'अध्यवसाय' अर्थात् क्या ? तो मानसिक परिणाम-व्यापार विशेष वह / अर्थात् मानसिक विचार उसका नाम ही अध्यवसाय / यह अध्यवसाय तीन प्रकारका है 1. अशुद्ध, 2. शुद्ध और 3. अत्यन्त शुद्ध / ___ आत्मा अशुद्धमेंसे शुद्ध विचारवान् तथा शुद्धमेंसे अतिशुद्ध विचारवान बनता है, इसलिए इस प्रकार क्रम दर्शाया है / अशुद्ध परिणाम नरकादि दुर्गतिका कारणरूप, शुद्ध परिणाम देवादिक सुगतिका कारणरूप और अत्यन्त शुद्ध परिणाम वह मुक्तिसुख-मोक्षका कारणरूप है। मानसिक विचारोंकी दो प्रकारकी स्थितियाँ सामान्य रीतसे मानसिक विचारोंकी जो विभिन्नताएँ प्रतिक्षण उत्पन्न होती है, उन्हें दो वर्गोमें बाँट दी गयी हैं / एक राग और दूसरा द्वेष / ___ अतः प्रथमके दो भेदमेंसे चार भेद बनेंगे। अर्थात् कि शुद्धराग और शुद्धद्वेष, अशुद्धराग और अशुद्ध द्वेष। जिनको प्रचलित परिभाषामें बोला जाये तो प्रशस्त राग-द्वेष और अप्रशस्त राग-द्वेष / मनकी इस विभिन्न विचारधाराओंको उत्पन्न होने में इष्ट-अनिष्ट वस्तुओंका संयोग
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy