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________________ 312 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 140-142 __ अब इसके लिए ग्रन्थकार महाराज स्वयं ही एक हाथके ग्यारह भाग कल्पते है, उन कल्पित ग्यारह भागोंमेंसे पूर्वमें विश्लेष करते शेष आयी हुयी चार सागरोपमकी संख्याको कमी करनेसे अर्थात् (सागरोपमकी स्थिति और हिस्सोके बीच विश्लेष करनेसे ) सात भाग संख्या आये, इस 1 ( सात बँटा ग्यारह भाग समझना) ग्यारहविए सात भागको सौधर्म ईशान युगलके पूर्वगाथामें कहे गए सात हाथ प्रमाणमेंसे कम करे, जिससे 6 हाथ और / (6 ) भाग शरीरप्रमाण सनत्कुमारमाहेन्द्र युगलके (पूर्वकल्पमें प्रवर्तमान यथायोग्य सागरोपमकी आयुष्यस्थितिमें एक एक सागरोपमकी वृद्धि और एक एक भागकी कमी करते जानेसे ) तीन सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंका देहमान आता है / इस तरह प्रति सागरोपमकी वृद्धि करनेसे और प्रतिभाग संख्या कम करनेके नियमसे चार सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंका देहमान 6 हाथ और में भाग आता है / पाँच सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंका 6 हाथ की भागका, 'छः सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंका 6 हाथ की भागका और सात सागरोपमकी स्थितिवाले सनत्कुमारेन्द्रमाहेन्द्र देवोंका देहमान एक कम करनेसे 6 हाथका यथार्थ आता है। ब्रह्म लांतकमें देहमान विचार ब्रह्म-लांतककल्पकी उत्कृष्ट स्थिति चौदह सागरोपमकी है और उसके नीचे सनत्कुमारमाहेन्द्र युगलकी स्थिति सात सागरोपमकी है, नियमानुसार उसका विश्लेष करनेसे सातकी संख्या शेष रहती है, उसमेंसे फिरसे एक कम करनेसे 6 संख्या आयी, अब एक हाथके ग्यारह भाग करके उनमेंसे 6 संख्या कम करनेसे 5 भाग आये, उन पाँच भागोंको पूर्वकल्पके अन्तिम प्रतरवर्ती देवके छः हाथके देहमानमेंसे कम करनेसे 5 हाथ और न भागका देहमान ब्रह्मकल्पमें आठ सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंका, 5 हाथ / भागका देहमान नौ सागरोपमकी स्थितिवालोंका, 5 का हाथ दस सागरोपमवालोंका, 5 ग्यारह सागरोपमवालोंका, 5 को बारह सागरोपमवालोंका, 5 का मान तेरह सागरोपमवालोंका और पाँच हाथोंका मान चौदह सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंका जाने / [140-141] अवतरण-पूर्व वैमानिक निकायवर्ती देवोंका भवधारणीय शरीरप्रमाण कहा, अब उन देवोंका उत्कृष्ट शरीरमान उत्तरवैक्रियकी अपेक्षासे कितना है ? यह बताते हैं भवधारणिज्ज एसा, उक्कोस विउब्धि जोयणा लक्खं / गेविज्ज-ऽणुत्तरेसुं, उत्तरवेउव्विया नत्थी // 142 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 142 // विशेषार्थ-उस तरह देवोंका भवधारणीय वैक्रिय शरीरका उत्कृष्टमान कहकर अब देहलीदीपक न्यायसे उक्कोस शब्दसे उन देवोंका उत्कृष्ट उत्तरक्रिय देहमान कितना होता है ? वह बताते हैं।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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