SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देवोंका भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय शरीर ] गाथा-१४२ [313 ग्रन्थकारने गाथामें लिखा है कि-हमने उक्त स्थिति भवधारणीय शरीरकी बतायी है, तो अब भवधारणीय क्या है ? उसे हम समझ ले। भवधारणीय शरीर - 'सुरैर्देवायुः समाप्ति यावत् सततं धार्यते असौ भवपर्यन्तं धारणीयं वेति भवधारणीयम्' / अपने आयुष्यकी समाप्ति तक देव जिसे सतत धारण करते हैं अथवा सारे जीवन तक जो रहनेवाला है उसे भवधारणीय कहा जाता है / देवोंके भवप्रत्ययिक (भवधारणीय) शरीर और उत्तरवैक्रिय शरीरके बीच अन्तर रहा है / जब कि पूर्वभवमें बँधे वैक्रिय शरीरनामकर्मके उदयसे उनको यह प्राप्त होता है इसलिए उसे 'भवधारणीय वैक्रियशरीर' सम्बोधन किया जा सकता है / परन्तु उत्तरवैक्रियके लिए वैसा नहीं है, वह शरीर तो भवपरत्वसे प्राप्त हुआ होता है / साथ ही भवधारणीय विशेषण देकर यह समझाते हैं कि यह शरीर जन्मकालके हेतुरूप है, और वह देवोंके पास यथायोग्य आयुष्यकाल तक रहनेवाला है / साथ साथ देव रचित वैक्रियवर्गणाका पुद्गलोंसे बने उत्तरवैक्रिय शरीरका मर्यादितकाल पूर्ण होते तुरन्त ही उसे पुनः मूल शरीरमें दाखिल होना ही पड़ता है और देवोंके च्यवनकाल तक भी वह ही शरीर होता है / इस तरह भवाश्रयी मुख्य रूपमें जो शरीर है, उसे भवधारणीय कहते हैं / इस शरीरकी उत्कृष्ट स्थिति पूर्व कह दी गयी है / अतः अब उत्तरवैक्रियकी परिभाषा समझाते हैं / / उत्तरवैक्रिय शरीर 'वैक्रियमिति-विशेषा-विविधा क्रिया सहजशरीर-ग्रहणोत्तरकालमाश्रित्य क्रियते इति उत्तरवैक्रियम्'। स्वाभाविक-भवधारणीय शरीर ग्रहण रहित समयमें विविध प्रकारकी क्रिया-आकृति करनेवाले शरीरको उत्तरवैक्रिय शरीर कहा जाता है। . - देवोंका यह उत्तरवैक्रियशरीर लब्धिप्रत्ययिक, तद्भवाश्रयी प्राप्त शक्तिवाला होता है / पूर्व की गयी व्युत्पत्तिके अनुसार इस उत्तरवैक्रियशरीरकी रचना अनेक प्रकारसे इच्छानुकूल हो सकती है / एक होता हुआ अनेक हो सकता है-अनेक होते हुए एक हो सकता हैं, भूचर होते हुए भी खेचर हो सकता है, खेचर (गगन चर, गगनगामा ) होकर भूचर (भूमि चर) भी तुरन्त हो सकता है / छोटेमेंसे बड़ा, बड़ेमेंसे छोटा, भारीसे हलका और हलकेसे भारी होता है, द्रश्यसे अद्रश्य और अद्रश्यसे द्रश्य होता है, इस तरह हरेक प्रकारकी अद्भुत, भाँतिभाँतिकी विविध और विचित्र क्रियारूप आकृतियाँ बनानेवाला यह शरीर है / और यह वैक्रियवर्गणाके पुद्गलसे ही हो सकता है। उपरोक्त दोनों 7. सं. 40
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy