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________________ सनत्कुमार-माहेन्द्र युगलकल्पमें करण योजना ] गाथा 140-141 [ 311 कम (विश्लेष) करके, आयी हुई संख्यामेंसे एककी संख्या कम करे, और अब जो संख्या आये उसे एक हाथके ग्यारह भाग कल्पित करके. उनमेंसे कमी करनेके बाद जो संख्या शेष रहे उसको पुनः (फिरसे ) पूर्वपूर्वकल्पगत अन्तिम प्रतरवर्ती यथोक्त शरीरप्रमाणमेंसे कमी करनेसे जितनी हस्त संख्या और ग्यारहविए भागोंकी संख्या आये वह; यथोत्तरकल्पमें प्रारम्भके प्रतर पर जितने सागरोपमकी स्थितिवाले देव होते हैं उनका शरीरप्रमाण आये / पुनः उसी प्रतरने आयुष्यमें एक एक सागरोपमकी वृद्धि करते चले और साथ साथ ( उत्तरोत्तर देहमान घटता होनेसे ) शेष रहते ग्यारहविए भागोंमेंसे एक एक भाग अनुक्रममें आगे आगे हीन (कमी) करते जाना / इस तरह करते करते हरेक कल्पगत यथोक्त सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंका सम्पूर्ण शरीरप्रमाण आता है / // 140-141 / / / विशेषार्थ-विशेषार्थमें गाथार्थको विशेष रूपमें स्फुट न करते हुए उस गाथार्थको दृष्टांत (घटना )के साथ घटा देते हैं, साथ-साथ सौधर्म-इशान कल्पयुगलमें यह विश्लेषकरण ( उसके पूर्व कल्पारम्भ न होनेसे ) अनावश्यक है, जो सहज ही समझ सकते है, इसीलिए सनत्कुमार माहेन्द्रादि युगलमें बताया जाता है। सनत्कुमार-माहेन्द्र युगलकल्पमें करण योजना उत्तरकल्पगत स्थिति अर्थात् सनत्कुमार-माहेन्द्रयुगलवर्ती सात सागरोपमकी जो अधिक स्थिति है, उसमेंसे पूर्वकल्पगत [ सौधर्म-ईशानवर्ती दो सागरोपमकी ] जो न्यून स्थिति है, इसी अधिक और न्यूनस्थितिके बीच विश्लेष (कमी ) करनेसे 7-2 = 5 सागरोपमकी संख्या आयी; उनमेंसे एककी संख्या कमी करनेकी होनेसे पाँचमेंसे एक जानेसे चार सागरोपम शेष रहे। . . [सौधर्म और सनत्कुमार युगलके बीच सिर्फ एक हाथका भेद रहता है अर्थात् उतनी कमी रहती है / उसी एक हाथ प्रमाणको उत्तरकल्पगत बाँट देना है। इसीलिए उस एक हाथके अमुक भागोंकी कल्पना करके पूर्वकल्पगत जो आयुष्यस्थिति है उसके साथ विश्लेष (कम) करने के बाद आयी हुयी भाग-संख्याको पूर्वकल्पगतके (सौधर्म युगलके) शरीरप्रमाणमेंसे कमी करके, उत्तर (सनत्कुमार) कल्पगत अनुक्रमसे प्रतिसागरोपमकी वृद्धिमें तथा अनुक्रमसे उन भागोंकी कमी करते चले तो उस उस सागरोपमकी स्थितिके देवोंका इच्छित प्रमाण मिलता है। उपरोक्त मतानुसार बाँटने योग्य एक हाथ प्रमाणकी कुछ ऐसी अमुक संख्या सोचे कि जिससे सनत्कुमार युगलके प्रारम्भकी तीन सागरोपमकी स्थितिसे लेकर सात सागरोपम तक (विश्लेषकरण करनेके बाद ) बाँटा जा सके और ऐसा करनेसे अन्तमें सात सागरोपमकी / स्थिति तक पहुँचते हमें देवोंका छः हाथका यथोक्त देहप्रमाण भी मिल सके /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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