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________________ 252 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 86-90 पश्चिममें सूर्यकी किरणों का प्रसार-फैलावा हो और उतनी ही दूरसे सूर्य उस मण्डलमें देख सके, जैसे कि सर्वाभ्यन्तर मण्डलमें सूर्य हों तब एक सूर्याश्रयी पूर्व-पश्चिम किरण विस्तार 47263 30 योजन होते हैं, उत्तर-दक्षिणमें-मेरुकी तरफ 44820 योजन, समुद्रकी तरफ 33333 3 योजन और द्वीपमें 180 योजन होते हैं। इस तरह सर्वबाह्यमण्डलमें दोनों सूर्य विचरते हैं तब पूर्व पश्चिम किरण विस्तार 31831 3 योजन मेरुकी तरफ समुद्रमें 330 योजन, द्वीपके अन्दर 45 हजार योजन है और लवणसमुद्रमें शिखाकी तरफ 33803 ई योजन है / इति तिर्यकिरणविस्तारः / और ऊर्ध्व किरण विस्तार 100 योजन और अधः-नीचे विस्तार 1800 योजन है, क्योंकि समभूतलसे दोनों सूर्य प्रमाणांगुलसे (400, मतांतरसे 1600 कोसके योजनके अनुसार) 800 योजन ऊँचे हैं और समभूतलसे भी एक हजार योजन नीचे अधो ग्राम आए हैं और वहाँ तक उन दोनों सूर्योकी ताप किरणे प्रसरती हैं अतः 800 योजन ऊपर और 1000 योजन नीचेके होकर 1800 योजनका अधो विस्तार हुआ। इति उर्ध्व-अधो किरणविस्तारः / इस तरह क्षेत्रविभाग द्वारा दिवस और रात्रिकी प्ररूपणा चौथे द्वारसे करनेके साथ प्रासंगिक आतप-अन्धकारके आकारादिका भी स्वरूप कहा। इति चतुर्थद्वारप्ररूपणा / / ५-प्रतिमण्डलमें परिक्षेप-परिधि प्ररूपणा किसी भी मण्डलमें एक मुहूर्तमें सूर्य कितने योजनकी गति करता है यह जाननेके लिए प्रथम हर एक मण्डलका परिधि पानेकी रीत जाननी चाहिए। इसके लिए प्रथम दोनों बाजूका संयुक्त जम्बूद्वीपगत 360 योजन जो चरक्षेत्र है उसे जम्बूद्वीपके 1 लाख योजनमेंसे कम करने पर 99640 योजन आते हैं / इस संख्याका त्रिगुणकरण पद्धतिसे परिधि निकालने पर 315089 योजनका परिधि सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें आता है। अवशिष्ट दूसरे मण्डलसे लेकर 183 मण्डलोंमें इष्टपरिधि जाननेके पूर्व जिस मण्डलका परिधि जानना हो उसके पूर्वके मण्डल परिधि प्रमाणमें व्यवहारनयसे 18 योजनकी वृद्धि करें। अठारहकी वृद्धि करनेका सान्वर्थपन इस लिए है कि किन्हीं भी विवक्षित मण्डलोंसे किन्हीं अनन्तर मण्डलोंका दोनों बाजूका मिलकर 5 योजन, 35 अंश क्षेत्र बढ़नेवाला होनेसे केवल उस वर्धित क्षेत्रका परिधि निकालें तब त्रिगुणरीतिके अनुसार 17 योजन 38 अंश आते हैं परन्तु स्थूल-व्यवहार२५२ नयसे सुगमताके लिए परिपूर्ण 18 योजन विवक्षा रखकर अभी कार्य करना है। 252. सत्तरस जोयणाई, अट्ठतीसं च एगसट्ठिभागा / एयंति निच्छएणसंवहारेण, पुण अट्ठारस जोयगा //
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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