SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हरएक मण्डलमें दोनों सूर्योंकी अबाधा और व्यवस्था ] गाथा 86-90 [ 225 जो 44820 यो० अबाधा आई है उसमें प्रक्षेपित करनेसे मेरुसे दूसरा मण्डल 44822 यो० और है। भागकी अबाधामें रहा है ऐसा उत्तर आएगा / इस तरह तृतीय मण्डलकी अबाधा जाननेके लिए भी दूसरे मण्डलसे तीसरे मण्डलके बिचके 2 यो० 46 भाग प्रमाणको पुनः दूसरे मण्डलकी आई हुई 44822 यो० / भाग अबाधामें प्रक्षेपित करनेसे मेरुसे तीसरे मण्डलकी 44825 यो० 35 भाग प्रमाण अबाधा आएगी / इस तरह सर्वाभ्यन्तर मण्डलसे लेकर प्रत्येक मण्डलकी उक्त (2 यो०१८ ) अन्तर प्रमाण अबाधा पहले निकाले मेरु और सर्वाभ्यन्तरमण्डलके बिचकी (44820) अबाधाके प्रमाणमें बढ़ोतरी करने पर (और साथ साथ इच्छित मण्डलकी भी अबाधा निकालते निकालते ) जब सर्वबाह्यअंतिम मण्डल तक पहुँचे तब वहाँ पर १८४वाँ अंतिम मण्डल-मेरुसे सर्वबाह्यमण्डल, प्रथम क्षणमें 45330 योजन प्रमाण अबाधामें रहा होता है / ___ उस समय भारतसूर्य मेरुपर्वतसे (45330 यो० दूर ) अग्निकोने में समुद्र में रहा होता है और उसीकी ही वक्र (कोनेसे कोना) समश्रेणीमें मेरुसे वायव्यकोनमें दूसरा ऐरवतसूर्य ( मेरुसे 45330 यो० दूर ) रहा होता है। [यहां पर आई 45330 योजन अबाधा प्रमाणमेंसे मेरुसे सर्वाभ्यन्तरमण्डल अबाधाके अनुसार जो 44820 योजन कम करने पर 510 योजनका चारक्षेत्र प्राप्त हो और उसमें अन्तिम मण्डलका है। भाग विमान विष्कम्भ मिलानेसे 51016 भाग प्रमाण सूर्यमण्डलोंका चारक्षेत्र भी आ सकता है / ] // इति मेरुं प्रतीत्य प्रतिमण्डलमबाधा // अब दोनों सूर्योकी प्रतिमण्डलमें परस्पर अबाधा और व्यवस्था जब जम्बूद्वीपके दोनों सूर्य सर्वाभ्यन्तर (प्रथम ) मण्डलमें हो अर्थात् मेरुसे पूर्व और २३५पश्चिममें प्रत्येक सूर्य विरुद्ध दिशामें प्रथम मण्डल स्थानवर्ती चरते हो तब (समश्रेणीमें ) उनका परस्पर अन्तर 99640 योजन प्रमाण होता है-यह प्रमाण जम्बूद्वीपके एक लाख योजन प्रमाण विस्तारमेंसे दोनों बाजूके जम्बूद्वीप विषयक मण्डल क्षेत्रके 235. जब सूर्य विमान उत्तर दक्षिणमें वर्तित हो तब कुछ अधिक अन्तरवाले होते हैं, क्योंकि वे पूर्व-पश्चिमवर्ती स्वस्वमण्डल स्थानसे प्रथम क्षणमें गति करे तब उनको ‘कर्णकीलिका' प्रकारकी गतिसे दूर दूर खसकते हुए गमन करना होता है कि जिससे दूसरे दिन उन्हें अनन्तर मण्डलकी कोटीके ऊपर 2 योजन दूर पहुँच जाना होता है / अतः वे उत्तर-दक्षिण दिशामें आवे तब मेरुसे अंतर कुछ अधिक रहता है / यदि उस प्रकारकी गति करता न हो तो फिर जहाँसे—जिस स्थानसे निकला वहीं पुनः गोलाकारमें घूमकर खड़ा रहे, लेकिन वैसा बनता ही नहीं है / 8. सं. 29
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy