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________________ 226 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 180 + 180 = 360 योजन कम करनेसे (पूर्वोक्त संख्याप्रमाण ) यथार्थ आ जाता है / वह इस तरह सर्वाभ्यन्तरमण्डलमें रहे दोनों सूर्य जब दूसरे मण्डलमें प्रवेश करते हैं तब उनका परस्पर अन्तर 99645 योजन 35 भाग प्रमाण होता है क्योंकि जब पूर्व दिशाका एक सूर्य प्रथम मण्डलसे दूसरे मण्डलमें गया तब प्रथम मण्डलकी अपेक्षा विमान-विष्कम्भ सह 2 योजन 6 अंश प्रमाण क्षेत्रसे दूर बढ़ा, तब उस प्रकार पश्चिम दिशावर्ती दूसरी बाजूका जो सूर्य वह भी सर्वाभ्यन्तरमण्डलसे स्वदिशामें दूसरे मण्डलमें गया तब प्रथम मण्डलकी अपेक्षासे यह भी 2 योजन 48 भाग क्षेत्र जितनी दूर गया, इस तरह दोनों बाजूके इन सूर्योने प्रथम मण्डलमेंसे दूसरे मण्डलमें प्रवेश किया, इससे हरएक मण्डलमें दोनों बाजूका अन्तर-(२ योजन ? + 2 योजन 16) इकट्ठा करनेसे (प्रतिमण्डल विस्तार सह अन्तरक्षेत्र प्रमाण) 5 योजन 35 भाग प्रमाण अबाधाकी वृद्धि (पहले कथित 99640 योजनकी अबाधामें) होती जाए / ___इस तरह दूसरे मण्डलसे लेकर प्रत्येक मण्डलमें 5 योजन और 35 भाग प्रमाण अबाधाकी वृद्धि (99640 योजनके प्रमाणमें ) करते करते और इस तरह सूर्यके परस्पर अबाधा-प्रमाणको निकालते निकालते, जब ( १८४वें) सर्वबाह्यमण्डलमें दोनों सूर्य घूमते घूमते विरुद्ध दिशामें आए हों तब एक सूर्यसे दूसरे सूर्यके बिचका परस्पर अन्तरक्षेत्र प्रमाण 1 लाख 660 योजन (100660 ) प्राप्त होता है / यह प्रमाण मण्डलक्षेत्रकी आदिसे लेकर १८४वाँ मण्डल 510 योजन दूरवर्ती होता है तब समझना / वैसे ही दूसरी बाजू पर भी मण्डलक्षेत्रके आदिसे अन्तिम मण्डल 510 योजन दूर होता है तब समझना, क्योंकि अन्तिम मण्डलक्षेत्र प्रमाण जो 48 अंश है उसे गिनतीमें नहीं लेनेका होनेसे 183 मण्डल१८३ अन्तरसे दोनों बाजूका होकर 1020 योजन क्षेत्र पूरित हो, उसमें मेरुकी अपेक्षा व्याघातिक सर्वाभ्यन्तरमण्डल अन्तर जो 99640 योजन है उसे प्रक्षेपित करनेसे यथार्थ 100660 योजन प्रमाण आ जाता है / " इस समय भारतसूर्य मेरुसे अग्निकोनेमें 45330 योजन दूर समुद्रमें सर्वबाह्यमण्डलमें होता है, जबकि दूसरा ऐरवतसूर्य समश्रेणीमें मेरुसे वायव्यकोनेमें मेरुसे 45330 योजन दूर होता है। ___ इस तरह उसी मण्डलस्थानमें यदि चन्द्र वर्तित हो तो चन्द्र चन्द्रका भी परस्पर अन्तरप्रमाण 100660 योजन बराबर आ जाए।" इस प्रकार सर्वबाह्यमण्डलमें दोनों बाजू पर रहे हुए लवणसमुद्रगत सूर्य जब वापिस आने पर अर्वाक् ( उपान्त्य-१८३वें ) मण्डलमें प्रवेश करें तब प्रतिमण्डलमें पांच
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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