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________________ 224 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 मेरुके आश्रयी ओघसे अबाधा-१ इस जम्बूद्वीपवर्ती मेरुसे सर्वाभ्यन्तर मण्डल ( अथवा प्रथम मण्डल अथवा तो सूर्यमण्डल क्षेत्र ) ' ओघसे 44820 योजन दूर होता है। वह किस तरह हो ? तो सर्वाभ्यन्तर मण्डल, जम्बूद्वीपमें-जम्बूद्वीपकी जगतीसे अन्दर खसकता, जम्बूके मेरुकी तरफ 180 योजनक्षेत्र अवगाह करके रहा है। इस 180 योजनकी सम्पूर्ण क्षेत्रप्राप्ति सर्वाभ्यन्तर मण्डलमें उत्पत्तिक्षणमें प्रथम क्षणमें प्राप्त हो उस वक्तकी समझना / चारों बाजू पर यथार्थ न समझना। अतः उस द्वीपके एक लाख योजनप्रमाण विस्तारमेंसे दोनों बाजूके होकर मण्डलक्षेत्रके 180 + 180 = 360 योजन कम करने पर 99640 योजन शेष रहेंगे। उनमेंसे भी २33मेरुका दस हजार योजन प्रमाणका व्यास कम करनेसे 89640 योजन अवशिष्ट रहेंगे, तत्पश्चात् इसी (89640) राशिके अर्थ करनेसे मेरु पर्वतकी अपेक्षा सर्वाभ्यन्तर मण्डल अथवा मण्डलक्षेत्रका ओघसे अन्तर 44820 योजनप्रमाण जो जताया वह इस तरह करनेसे प्राप्त होता है। अतः अर्वाक् तो मण्डल है ही नहीं। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि जब सर्वाभ्यन्तर मण्डलका ( उत्तरायणको समाप्त करके दक्षिणायनके प्रथम मण्डलको आरम्भ करता ) भारत सूर्य मेरुसे अग्नि कोने में निषध पर्वत पर 44820 योजन दूर रहा हो, तब उसकी ही प्रतिपक्षी दिशा (वायव्य)में तिी समश्रेणीमें-नीलवन्त पर्वत पर ऐरवत क्षेत्रमें वर्षारंभ करता हुआ ऐरवत सूर्य भी मेरुसे 44820 योजन दूर होता है। -इति मेरुं प्रतीत्य मण्डलक्षेत्रस्य ओघतः अबाधा // मेरुके आश्रयीके (आश्रित) प्रत्येक मण्डल विषयक अबाधा-२. पहले मेरु और सर्वाभ्यन्तर मण्डलके बिचकी अबाधा कही / अब मेरुसे प्रत्येक अथवा किसी भी मण्डलकी अबाधा कितनी हो? यह समझनेके लिए सर्वाभ्यन्तरप्रथम मण्डलसे दूसरे मण्डलके अन्तभाग तकका अन्तराल ( अन्तर) प्रमाण 2 यो० और है। भाग 234 प्रमाण है, अतः इस अबाधाको-सर्वाभ्यन्तर मण्डल और मेरुके बिच पहले 233. इस स्थानमें मेरुका इतना व्यास होना यथार्थ नहीं है तो भी पृथ्वीतल-समभूतलाके पास दस हजार योजनका जो व्यास है, वह व्यास यहाँ व्यवहारनयसे सामान्यतः लिया जाता है, अन्यथा '11 योजन पर एक योजन दोनों बाजू पर घटता है और नन्दनवन स्थानमें तो दोनों बाजू पर एक साथ हजार योजन घटते हैं।' इस हिसाब तो दस हजार योजनमेंसे 726 घटाना योग्य है। 234 इस दो योजन और 48 भाग अधिक कहनेका आशय यह है कि-सर्वाभ्यन्तरमण्डलके अंतिम भागसे लेकर दूसरा मण्डल 2 योजन दूर है और दूसरे मण्डलके एक योजनके 48 भागका विस्तार उस अवधामें साथमें लेनेका है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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