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________________ सूर्यमण्डल कितने और क्या दृश्यमान होता है ? वह ] गाथा 86-90 [ 221 231 मण्डल नीलवंत पर्वत पर पडे दीखते और 3 मण्डल रम्यक्षेत्रकी बाहा-जीवाकोटी पर पडे दीखते / (इस चालू ग्रन्थकारके मतानुसार जाने) ये मण्डल अपने भरतक्षेत्रकी तथा ऐरवतक्षेत्रकी अपेक्षा मेरुसे अग्नि तथा पायव्यकोने में दीखते हैं, परन्तु पूर्वमहाविदेहकी २३२अपेक्षा उन्हें नीलवन्त पर्वतके ऊपरके वे ही 63 मण्डल मेरुसे ईशान कोनेमें दीखते हैं, और पश्चिम महाविदेहकी अपेक्षा निषध पर्वतके ऊपरके 63 मण्डल मेरुसे नैऋत्य कोनेमें दीखते हैं / जम्बूद्दीवे णं भंते / दीवे सूरिआ उदिणपाईणमुगच्छ पाईणदाहिणमागच्छंति, पूर्वविदेहापेक्षयेदम् // 1 // पाईणदाहिणमुग्गच्छदाहिणपडीणमागच्छंति, भरतक्षेत्रापेक्षयेदम् // 2 // दाहिणपडीणमुग्गच्छपडीणउदीणमागच्छंति, पश्चिमविदेहापेक्षयेदम् // 3 // पडीणउदीणमुग्गच्छउदीणपाईणमागच्छंति, ऐरवतापेक्षयेदम् // 4 // [सूर्य० प्र० प्रा० ८-जम्बू० प्रज्ञ०] इतना विवेचन चालू गाथाके अर्थको उद्देशित करके किया / तक 12 यो० जगती गिनकर 62-63-64-65 ये चार मण्डल जगतीके ऊपर कहें तो 'जगती' शब्द सम्पूर्ण सार्थक होता है, और जगतीके तीनों विभागके कथनमें दोष ही नहीं आएगा; अतः 64-65 वा मण्डल ढालकी अपेक्षा जगतीके पर होने पर भी '64-65 वा जगतीके ऊपर' ऐसा कहना यह सम्पूर्ण सार्थक नहीं दीखता / परन्तु 64-65 वा -- जीवाकोटी वा बाहास्थानमें' कहना, यह स्थान स्पष्टताके लिए : विशेष उचित है और इसीलिए वह स्थान हरिवर्ष अथवा रम्यक् क्षेत्रकी जीवाकोटीमें गण्य हो जानेसे उस 'जीवाकोटी' स्थानका ग्रन्थकार महर्षि निर्देश करें उसमें अनौचित्य नहीं है। ..तीनों मतोंके विषयमें व्यवस्थित विवेचन करके ग्रन्थकारके कथनको स्पष्ट किया है। तथापि तीनों मतोंमें अन्तमें जणाये अनुसार उन मण्डलोंके लिए स्थानदर्शक या स्थानसूचक अतिस्पष्ट शब्द तो 'जीवाकोटी' ग्रहण करना विशेष उचित है / इन तीनों मतोंके लिए वृद्धवाद है; ग्रन्थगौरवके कारणसे इस बाबतमें विशेष . उल्लेख न करते हुए विरमते हैं / मेरी छोटी बुद्धिसे चर्चा की हैं / विशेष स्पष्टता ज्ञानीगम्य / . 231. मेरुकी एक बाजूके कुल 65 मण्डल और दूसरी बाजूके कुल 65 मण्डल इस तरह दो व्याख्याएँ कीं, इससे ऐसा नहीं समझना कि 130 मण्डल समझने हैं / मण्डल सारे-सम्पूर्ण तो पैंसठ ही हैं / लेकिन प्रतिदिशावर्ती व्यक्तिको एक बाजूसे स्वदृष्टदिशागत अर्ध अर्ध मण्डल दृष्टिगोचर होते हैं, क्योंकि देखनेवाले व्यक्तिको सम्पूर्ण वलयाकार मण्डल दीखता नहीं है, अतः वे स्वस्वक्षेत्रसे दोनों बाजूके मण्डल दोनों विभागोंमें देख सकते हैं अतः यहाँ इस प्रकार व्याख्या की है। . 232. विशेषमें यहाँ इतना समझना कि पूर्वविदेहके लोगोंकी जो पश्चिम दिशा वही भारतीय लोगोंकी पूर्व दिशा, भरतकी जो पश्चिम दिशा वही पश्चिम विदेहकी पूर्व दिशा, पश्चिम विदेहकी पश्चिम दिशा वही ऐवतकी पूर्व दिशा, ऐरवतकी जो पश्चिम दिशा वही पूर्व विदेहकी पूर्व दिशा समझना / इस तरह उन उन वर्षधरादि युगलिक क्षेत्रोंमें भी सोचना /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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