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________________ मेरुपर्वत और अभिषेक शिलाओंका वर्णन ] गाथा 86-90 [201 दिशामें ‘अतिपाण्डुकम्बला' नामकी शिलाएँ हैं / उसमें पूर्व-पश्चिमकी दो शिलाओंके ऊपर 500 धनुष दीर्घ, 250 धनुष विस्तीर्ण और 4 धनुष ऊँचा ऐसे दो दो सिंहासन हैं, और उत्तर तथा दक्षिणवर्ती शिलाओंके ऊपर उक्त प्रमाणवाला एक-एक सिंहासन है। इसमें पूर्व दिशाकी शिलाके दो सिंहासनके ऊपर पूर्व महाविदेहकी 16 विजयों में उत्पन्न होते जिनेश्वरदेवोंको, अनादिकालके तथाविध आचारवाले सौधर्म इन्द्र प्रभुको अपना अहोभाग्य सोचकर पंचरूप करके, पंचाभिगम सहेज कर मेरुपर्वतके ऊपर ले जाता है / जहाँ महान कलशादि सामग्रीसे अनेक प्रकारके ठाटबाटसे युक्त, अनेक देवदेवियोंसे परिवृत्त महाभाग्यशाली सौधर्मेन्द्र प्रभुको अपने ही अंकमें (गोद) लेता है, उस वक्त महान अभिषेक आदि क्रियाएँ होती हैं, और उनके द्वारा भक्तिवंत इन्द्र, देवदेवियाँ " हमें ऐसा सुनहरा अवसर प्राप्त हुआ, धन्य है हमारी आत्माको कि आज ऐसे परमपवित्र त्रिलोकनाथ परमात्माकी भक्तिका महद् सुयोग प्राप्त हुआ।" इत्यादि अनुमोदनाएँ करते हुए अनर्गल पुण्योपार्जन कस्के कृतकृत्य बनते हैं। इसी तरह पश्चिम महाविदेहकी 16 विजयोंमें उत्पन्न होते जिनेश्वरोंका 'पश्चिम' दिशावर्ती शिलाके ऊपर और 'दक्षिण' दिशाको शिलाके ऊपरके सिंहासन पर भरतक्षेत्रमें उत्पन्न हुए प्रभुओंका और 'उत्तर' दिशाकी शिलाके ऊपर ऐवत क्षेत्रवर्ती परमात्माओंका जन्माभिषेक होता है, जहाँ ऐसे महानुभाव परमात्माओंके जन्माभिषेक जैसे कल्याणक कार्य हो रहे हैं, ऐसा यह २१५मन्दर-मेरुपर्वत सदा अचल और जयकारी वर्तित है। इस मेरुके दक्षिणकी तरफ के निषधपर्वतमेंसे निकलते निषधपर्वतके ही सम्बन्धवाले _दो गजदन्तगिरि' और उत्तरकी तरफके नीलवन्त पर्वतमेंसे निकले हुए दो गजदन्तगिरि इस तरह कुल चार गजदन्तगिरि हैं / वे गजके दन्तुशूलाकारमें अथवा रणसिंघाकारवत् होकर मेरुके पास पहुंचे हुए हैं, और इसीलिए मेरुकी उत्तरके और दक्षिणदिशाके दो दो गजदन्तगिरियोंके छोर परस्पर इकट्ठा मिलनेसे अर्धचन्द्राकारके सद्दश आकार होता है / इन ____ 215. इस पर्वतका स्वामी ‘मन्दर' नामका देव होनेसे 'मन्दर' ऐसा नाम पड़ा है-यह नाम / शाश्वत समझना / मेरु पर्वतके 16 प्रकारके नाम हैं, जो नीचे अनुसार हैं किंचार्य मन्दरो मेरुः सुदर्शनः स्वयंप्रभः / मनोरमी गिरिराजो रत्नोच्चयशिलोच्चयौ // 1 // लोकमध्यो लोकनाभिः सूर्यावर्तोऽस्तसंज्ञितः / 13 14 15 16 दिगादिसूर्यावरणावतंसकनगोत्तमाः // 2 // ये सारे नाम सान्वर्थ हैं। ब. सं. 26 12
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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