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________________ 200 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 86-90 ऊँचा, 32 खण्ड प्रमाण, 9 कूटवाला, तपनीय रक्तसुवर्णका और सूर्य-चन्द्रके मण्डलोंके आधारवाला (और इसीलिए इस ग्रन्थमें इस अढाईद्वीपका वर्णन करनेमें सहायक बना हुआ) 'निषध' नामका पर्वत आया है। इस पर्वतके ऊपर व्यन्तरनिकायकी ‘घी' नामकी देवीके निवासवाला, 4000 योजन लम्बा, 2000 यो० चौडा, 10 यो० गहरा 'तिगिछिद्रह' आया है। इस पर्वतके ऊपर इस बाजूसे चढ़कर उस बाजू पर उतरनेसे तुरन्त ही निषध पर्वतसे द्विगुण 33684 यो० 4 कला विस्तीर्ण और मध्यमें 1 लाख यो० दीर्घ, 64 खण्ड प्रमाण निषध और नीलवन्तके बिचके भागमें रहा हुआ 'महाविदेहक्षेत्र' आया है। इस क्षेत्रके मध्यमें एक लाख योजन ऊँचा, पीत सुवर्णमय, शाश्वत ऐसा मेरुपर्वत आया है। यह पर्वत निन्यानबे हजार (99000 ) योजन जमीनके बाहर है, जिससे ज्योतिषी निकायके मध्यभागको भी पसार करके आगे ऊँचा चला जाता है, उसका 1000 योजन जितना मूल जमीनमें गया हुआ है, इससे वह रत्नप्रभा पृथ्वीके पहले कांडके अन्त तक पहुंचा हुआ है, अतः उस पर्वतका हजार योजन प्रमाण जहाँ पूर्ण (समभूतल स्थानमें ) होता हैं उस सारे भागको ‘कन्द' कहते हैं / इस कन्दस्थानमें उसका विस्तार 10000 योजनका है / और ऊपर जाते घटता घटता शिखरभागमें 1000 योजन चौड़ा रहता है, अतः यह पर्वत ऊँचा किया हुआ 'गोपुच्छ' जैसा दीखता है / यह पर्वत तीन विभागों में विभाजित है, अर्थात्-जमीनमें गए हुए हजार योजनसे हीन जो कांड (भाग ) प्रथमकाण्ड कहलाता है / यह कांड-कंकड, पत्थर और रत्नादिसे बना है / हीन ऐसे 1 हजार योजनसे लेकर (रत्नप्रभागत समभूतला रूचकसे ). 63 हजार योजन प्रमाण स्फटिकरत्न-अंकरत्न तथा चांदी-सुवर्णमिश्रित द्वितीयकाण्ड' है / उसमें समभूतलासे 500 यो० के बाद 'नन्दनवन' आया है, नीचेके कन्द भागमें ‘भद्रशाल' वन है और 63 हजार योजन पूर्ण होने पर वहाँ ‘सोमनस' वन है। इस सोमनस वनसे शिखर तकका 36 हजार यो०का भाग 'तीसराकांड' कहलाता है और वह जाम्बूनद [ रक्त ] सुवर्णका बना है / इस तीसरे काण्ड-पर 'पांडुकवन' आया है / इस वनके मध्यमें एक चूलिका आई है / वह 40 यो० ऊँची, मूलमें 12 यो० चौडी, शिखर पर 4 यो० चौडी, वैडूर्य रत्नकी, श्रीदेवीके भवनके समान वृत्ताकार और ऊपर एक बडे शाश्वत चैत्य गृहवाली है। इस चूलिकासे 500 यो० दूर पांडुकवनमें चारों दिशाओं में चार जिन भवन हैं। इन चारों भवनोंके बाहर भरतादि क्षेत्रोंकी दिशाकी तरफ 250 योजन चौडी, 500 यो० दीर्घ, 4 यो० ऊँची, अष्टमीके चन्द्राकारके सद्दश श्वेतवर्णीय अर्जुनसुवर्णकी चार अभिषेक शिलाएँ वर्तित हैं। प्रत्येक शिला वेदिकासहित वनवाली है। उसमें पूर्व दिशामें 'पाण्डुकम्बला,' पश्चिम दिशामें 'रक्तकम्बला,' उत्तरमें 'अतिरक्तकम्बला' और दक्षिण
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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