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________________ 202 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 86-90 दोनों पर्वतोंके बिचमें मेरुकी दक्षिण दिशामें 'देवकुरु' नामका युगलिक क्षेत्र आया है, इस तरह उत्तरवर्ती दो गजदन्तोंके बिच 'उत्तरकुरु' नामका क्षेत्र है / दोनों क्षेत्रों में सदाकाल प्रारम्भके भावोंसे युक्त प्रथम आरा वर्तित है, तथा 200 कंचनगिरि तथा अन्य पर्वत, दस दस द्रह और नद्यादिकसे युक्त है / उनमें उत्तरकुरुक्षेत्रमें जम्बूद्वीपके अधिपति अनाद्दत देवके निवासवाला, जिसके कारण यह जम्बूद्वीप ऐसा नाम प्रसिद्ध हुआ है, वह शाश्वत 'जम्बूवृक्ष' आया है और देवकुरुमें भी जम्बूवृक्षके सद्दश ' शाल्मली' वृक्ष आया है। इस मध्यमेरुसे पूर्व दिशामें और पश्चिमदिशामें विस्तृत होनेके कारण ही 'पूर्वमहाविदेह' और 'पश्चिममहाविदेह' ऐसी प्रसिद्ध संज्ञावाला 216 'महाविदेहक्षेत्र' आया है। इस क्षेत्रकी दोनों दिशाओं में मध्यभागमें 'सीता' तथा 'सीतोदा' नदियाँ बहती हैं। जिससे पूर्व-पश्चिम विदेह दो दो भागवाले होनेसे महाविदेहके कुल चार विभाग पडे हैं, उनमें पूर्व पश्चिम दिशावर्ती एक-एक भाग ऐश्वतक्षेत्रकी तरफका और एक-एक भरतक्षेत्रकी तरफकी दिशाका तथा एक-एक विभागमें कच्छादि आठ आठ विजय होनेसे चार विभागमें 32 विजय होती हैं / इन विजयोंकी चौडाई 22124 योजन है, और लम्बाई 1659228 योजन है। विजयोंकी परस्पर मर्यादाको बतलानेवाले 500 योजन चौडे, विजय तुल्य लम्बे, दो दो विजयोंको गोपकर अश्वस्कंधाकारमें रहे. हुए चित्रकुटादि 16 वक्षस्कार आए हैं, अतः प्रत्येक विभागमें चार चार हुए / इस तरह इस क्षेत्रमें दो दो विजयोंके बिचमें दो वक्षस्कारके अन्तर विस्तारोंकी मध्यमें 125 योजन चौडी ग्राहवत्यादि 12 नदियाँ आई हैं, अर्थात् एक-एक विभागमें तीन तीन होकर 12 नदियाँ होती हैं। ये नदियाँ दूसरी नदियोंकी तरह कम-ज्यादा प्रमाणवाली न होकर ठेठ तक एक समान प्रमाणवाली और सर्वत्र समान गहराईवाली रहती है / इस क्षेत्रकी दोनों दिशाओं में बड़े वनमुख रहे हैं / चक्रवर्तीके विजय करने योग्य जो विजयक्षेत्र हैं उनमें भरतक्षेत्रवत् उत्सर्पिणी अवसर्पिणीके छः छः आराविषयक भावोंका अभाव होनेसे वहाँ ‘नोत्सर्पिणी', 'नोअवसर्पिणी' (चौथा आरा) जैसा काल है / उसका स्वरूप पहले कहा हुआ है, वह चौथे आरेके कालके प्रारम्भिक भाववाला सुखमय है, इसीसे उस क्षेत्रमें सिद्धिगमन कायमके लिए खुला ही है / क्योंकि उस क्षेत्रमें सिद्धिगमन योग्य कार्यवाहीकी सारी सानुकूलता सदा 216. महाविदेहक्षेत्र, भरतक्षेत्र, ऐवत्क्षेत्र, ये तीनों क्षेत्र कर्मभूमिके कहलाते हैं; क्योंकि वहाँ ' असि' 'मसि', 'कृषि 'के व्यापार चालू हैं और इसलिए अज्ञानात्माओंको सर्वप्रकारकी संसारवृद्धिके कारणभूत बनते हैं, जबकि पुण्यात्माओंके लिए यही भूमि परम्परामें अनन्तसुखके स्थानरूप बनती है / अतः यह भूमि सर्व प्रकारके अनुष्ठानोंके लिए योग्य तथा शलाका पुरुषोंकी उत्पत्ति करनेवाली है / कुल कर्मभूमि 15 हैं-५ भरत, 5 ऐरवत, 5 महाविदेह जिसके लिए कहा है-भरहाई विदेहाई एरव्वया च पंच पत्तेयं / / भन्नति कम्मभूमिओ धम्मजोगाउ पन्नरस // 1 //
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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