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________________ भरतक्षेत्रका संक्षिप्त स्वरूप ] गाथा 86-90 [ 199 'लघुहिमवन्त' पर्वत आया है / इस पर्वत पर आए हुए 'पद्म' द्रहमें 'श्री 'देवीका निवास है / इस पर्वतके ऊपर चढ़कर उतना ही दूसरी बाजू पर उतरने पर तुरन्त ही, पूर्वके पर्वतसे द्विगुण (2105 यो० 5 कला) विस्तारयुक्त और 38674 14 यो० दीर्घ ज्यावाला चार खण्ड प्रमाण अवसर्पिणीके तीसरे आरेके प्रारम्भके भाववाला 'हिमवन्तक्षेत्र' आया है। इस क्षेत्रमें पूर्व में 'रोहिता' और पश्चिममें 'रोहितांशा' नदी बहती है / इस क्षेत्रके मध्यमें अथवा इन दो नदियोंका जहां नजदीक संयोग हो उस स्थानमें शब्दापाती' नामका वृत्तवैताढय आया है। यह क्षेत्र सम्पूर्ण होनेके बाद तुरन्त ही पूर्वक्षेत्रसे द्विगुण (4210 यो० 10 कला ) विस्तारवाला, साधिक 53931 यो० दीर्घ जीवावाला, 8 खण्ड प्रमाण, 200 यो० ऊँचा, पीतसुवर्णका, 8 कूट-शिखरवाला, लम्ब चतुष्कोण (पूर्वसे पश्चिम तक गया हुआ ) २१वेदिका और वनसे सुशोभित, 'महाहिमवन्त' नामका पर्वत आया है। इस पर्वतके ऊपर दो हजार . यो० लम्बा, एक हजार यो० चौड़ा, 10 यो० गहर। 'ही' देवीके निवासवाला ‘महापद्म' नामका द्रह आया है / इस पर्वत पर चढ़कर उतना ही नीचे उतरने पर तुरन्त ही महाहिमवन्तकी उत्तरमें पूर्वसे द्विगुण (8421 योजन 1 कला) विस्तारवाला, 73901 43 यो० पूर्व-पश्चिम दीर्घ ज्यावाला, 16 खण्ड प्रमाण, पूर्वदिशामें बहती 'हरिसलिला' और पश्चिममें बहती 'हरिकान्ता' नदीसे युक्त, क्षेत्रके मध्यमें रहे हुए 'गन्धापाती' नामके वृत्तवैतादयवाला, अवसर्पिणीके दूसरे आरेके प्रारम्भके भाव सद्दश 'हरिवर्ष 'नामका 214 युगलिक क्षेत्र आया है। ... इस क्षेत्रके सम्पूर्ण होने के बाद तुरन्त ही मेरुसे दक्षिणमें (हरिवर्षोत्तरे) पूर्वसे : द्विगुण 16842 यो० 2 कला विस्तारवाला, साधिक 94156 यो० दीर्घ जीवावाला, 400 यो० - 213. हरएक वर्षधर, वेदिका, वन सहित समझना / . .. 214. इन छहों क्षेत्रोंमें रहनेवाले युगलिक मनुष्य स्वभावसे सरल, भोले और सर्व तरहसे सुखी और दिव्य स्वरुपवाले होते हैं और इन छहों युगलिक महाक्षेत्रोंमें असि ( शस्त्र व्यवहारादि), मसि (लेखन कलादि), कृषि (किसान व्यापारादि) इन तीनोंका व्यापार न होनेसे उन्हें कर्मबन्धन अल्प होता है / ये युगलिक मरनेके बाद अवश्य देव होते हैं / इन क्षेत्रोंको अकर्मभूमिके समझे / कुल अढाई द्वीपमें 5 हैमवन्त, 5 हरिवर्ष, 5 देवकुरु, 5 उत्तरकुरु, 5 रम्यक् और 5 हैरण्यवत् होकर तीस अकर्मभूमियाँ समझना / इसलिए कहा है कि" हेमवयं हरिवासं देवकुरु तह य उत्तरकुरुवि / रम्मय एरण्णवयं इय छ ब्भूमिओ पंचगुणा // 1 // एया अकम्मभूमीओ तीस सया जुयलधम्मजयठाणं / दसविहकप्प महद्दमसमुत्थभोगा पसिद्धाओ // 2 // " [प्रक्चनसारोद्धार
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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