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________________ 198 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ..... ....... [गाथा 86-90 . ___ यह त्रिगुणाधिक परिधिवाला एक लाख योजनका जम्बूद्वीप, पूर्वसमुद्रसे पश्चिम समुद्र तककी लम्बाईवाले सात वर्षधर (कुलगिरि) पर्वत और उसके आन्तरेमें रहे हुए सात महाक्षेत्र तथा उन क्षेत्रों में रहीं महानदियाँ आदिसे सम्पूर्ण है। हम जिसमें रहते हैं वह भरतक्षेत्र, अर्धचन्द्राकार समान मेरुसे दक्षिण दिशामें आया हुआ, तीनों दिशाओं में लवणसमुद्रको स्पर्शित, 526 यो० 6 कला विस्तारवाला और 14471 54 यो पूर्व समुद्रसे पश्चिम समुद्र तककी दीर्घ ज्यावाला (लम्बा ), और उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी के छः छः आरोंके भावोंसे वासित है / हरएक क्षेत्र तथा पर्वतको पूर्वसमुद्रसे पश्चिमसमुद्र तक फैला हुआ समझे / मात्र जम्बूद्वीपके विस्ताराश्रयी लम्बाई प्रमाणमें फर्क पडेगा / इस भरतक्षेत्रकी सीमा पर रहे हुए लघुहिमवन्त पर्वत के मध्य भागमें 10 योजन गहरा, 1000 योजन लम्बा, 500 योजन चौडा वेदिका और वनसे परिवृत्त / और जिसके मध्यस्थानमें अलग अलग वैडूर्यादि रत्नके विभागमें विभाजित श्रीदेवीके प्रथम रत्नकमलसे युक्त, तथा उस मूल कमलको परिवृत्त दूसरे छः वलयोंसे सुशोभित ऐसा 'श्री' देवीके निवासवाला 'पद्म' नामका द्रह आया हुआ है / उसमेंसे निकलती गंगा. और सिन्धु स्वस्वदिशाकी ओर, पर्वतके पर बहकर, गंगानदी उत्तर भरतार्धकी ओर 14000 नदियोंके साथ मैत्री करती हुई दक्षिणसमुद्र में मिल जाती है। उसी तरह 14000 नदियोंसे परिवृत्त दूसरी सिन्धु नदी पश्चिम दिशामें दीर्घवैताढय पर्वतके नीचे होकर, दक्षिणभरतार्धकी तरफ बहकर दक्षिणसमुद्रमें मिल जाती है / शाश्वती गंगा और सिन्धु इन दोनों नदियोंने तथा भरतक्षेत्रके मध्यमें रहे दीर्घवैताढय पर्वतने अर्थात् दो नदियों तथा पर्वतने मिलकर इस भरतक्षेत्रके छः विभाग किये हैं। हम दक्षिण भरतार्द्धके मध्यखण्डमें रहते हैं और एसिया, योरप, अफ्रिका, अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि वर्तमान दुनियाका दक्षिणभरतार्धमें समावेश होता है / इस जम्बद्रीप भरतखण्डके प्रमाणके 190 21 खण्ड प्रमाण होनेसे यह भरतक्षेत्र 1 खण्ड प्रमाण है / इस क्षेत्रके मध्यमें अयोध्या नगरी आई हुई है। तथा 63 २१२शलाका पुरुष भी इस क्षेत्रमें उत्पन्न होते हैं / इस भरतखण्डकी उत्तर दिशामें वैताढयको लांघ करके बादका भरतक्षेत्र पसार करनेके बाद भरतसे द्विगुण विस्तारवाला (1052 यो० 12 कला प्रमाण ), वेदिका और वनसे सुशोभित, पीत सुवर्णमय, लम्बचतुष्कोण-आकारमें जिनभवनादिसे सुवासित 11 कूटवाला, साविक 24932 योजन लम्बी जीवावाला, 2 खण्ड प्रमाण, 211. णउयसयं खंडाणं, भरहपमाणेण भाइए लक्खे / अहवा नउय सयं, गुण भरहपमाणं हवइ लक्खं // [जम्बू. संग्रहणी] 212. शलाका पुरुषोंकी उत्पत्ति ऐरवत और महाविदेहमें भी होती है और वहाँ वे. यथायोग्य विजयोंको भी साधते हैं /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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