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________________ बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ] गाथा-२ [ 19 स्थितिप्रमुख द्वारोंकी शुरूआत करते ग्रन्थकार भगवान प्रथम चार प्रकारके२२ देवोंमेंसे भवनपति देवोंकी जघन्य स्थितिका अर्धगाथासे वर्णन करते हैं दसवाससहस्साई भवणवईणं जहन्नठिई // 2 // गाथार्थ :-भवनपति देवोंकी जघन्य आयुष्यस्थिति दसहजार वर्ष प्रमाण होती है // 2 // विशेषार्थ-असुरकुमारादि दसों प्रकारके भवनपति देवोंकी तथा उनकी देवियोंकी जघन्य आयुष्यस्थिति दस हजार वर्षकी होती है। इससे न्यून आयुष्यस्थिति भवनपतिनिकायमें नहीं होती। प्रथम भवनपति ‘भवनवसनशीला इति भवनपतयः' अर्थात् भवनों में बसनेवाले 22. प्रश्न–देव अर्थात् क्या ? कारण कि सिद्धान्तमें देव पांच प्रकारके कहे गये हैं तो यहां आप किस देवके सम्बन्धमें वर्णन करना चाहते हैं ? उत्तर-यद्यपि सिद्धान्तमें द्रव्यदेव, नरदेव, धर्मदेव, देवाधिदेव और भावदेव इस तरह पांच प्रकारसे देव कहे गये हैं। उनमें(१) द्रव्यदेव-अर्थात् शुभकर्मके द्वारा देवगतिके संबंधमें आयुष्य-बंध कर दिया हो, वह मनुष्य अथवा तिर्यंच पञ्चेन्द्रिय जीव / (2) नरदेव-वह सार्वभौम चक्रवर्ती राजा, जिसको चौदहरत्न, नवनिधि तथा छह खण्डोंका स्वामित्व प्राप्त हुआ हो / अन्य मनुष्योंकी अपेक्षा जो पौद्गलिक ऋद्धिमें सर्वोत्तम होते है / (3) धर्मदेव-जो श्रीतारक जिनेश्वरदेवके पावन प्रवचनके अर्थका अनुसरण करनेवाले और उत्तम प्रकारके शास्त्रोक्त आचारको पालनेवाले हैं, वे आचार्य महाराजादि / (4) देवाधिदेव-तीर्थकरनामकर्मके उदयसे जो अपनी सुधासम वाणी द्वारा भव्यात्माओं पर असीम उपकार ... करते हैं वैसी परमपूज्य सर्वोत्तम आत्माए / .. (5) भावदेव-जो विविध प्रकारकी क्रीडा करने में लुब्ध हैं और देवगति नाम-कर्मका उदय और देवायुष्दको भोग रहे हैं वे / प्रथम जो चार देव हैं वे आपेक्षिक देव हैं। परंतु यहां तो उपर बताये अनुसार भावदेव ही अभिप्रेत हैं / अर्थात्'दीव्यन्तीति देवाः स्वच्छन्दचारित्वात् अनवरत क्रीडासक्तचेतसः क्षुत्पिपासादिभित्यिन्तमाघ्राता इति / द्योतन्ते वा भास्वरशरीरत्वादस्थिमांसासूक्पबन्धरहितत्वात् सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दरत्याच्च देवाः // 'जो स्वच्छन्दरूपसे निरन्तर क्रीड़ामें आसक्त चित्तवाले हैं, जिनको क्षुधातृवा बहुत कम लगती है, देदीप्यमान और अस्थि मांस-रुधिरादि धातुओंसे रहित वैक्रिय शरीर होनेके साथ जो सर्वा गसुन्दर हैं, वे ही देव कहलाते हैं, और यहाँ वैसे ही देवोंकी व्याख्याका प्रकरण है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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