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________________ 18 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१ अर्थ:-संसारके त्रिविध तापसे तप्त, दुःखी बने प्राणियोंको सर्वज्ञभगवान् कथित उपदेश द्वारा जो उपकार करता है, वह शीघ्र मोक्षसुख पाता है। अब ग्रन्थका श्रवण करनेवाले श्रोताके लिये अनन्तरप्रयोजन देवादि जीवोंके आयुष्य आदिकी जानकारी और परम्परप्रयोजन मोक्षकी प्राप्ति है / जिसके लिए कहा है कि'सम्यग्भावपरिज्ञानाद् , विरक्ता भवन्ति जनाः / क्रियासक्ता अविध्नेन, गच्छन्ति परमां गतिम् // '. ___ अर्थ:-जो वस्तु जैसी हो उस वस्तुकी वैसी जानकारी होनेसे विरक्त आत्माएँ संवरक्रियाके योगसे विनरहित परमगति-मोक्षको पाती हैं / ___ इस तरह इस ग्रन्थके प्रणेता श्री चन्द्रसूरि महाराजने भी स्व-परप्रयोजन आश्रयी इस. ग्रन्थकी रचना की है। प्रश्न:- यह ग्रन्थरचना श्रीमान् चन्द्रसूरि महाराजने क्या स्वबुद्धि-कल्पनासे की है या भगवान्की द्वादशांगीके सम्बन्धसे की है ? उत्तर :-सम्बन्ध दो प्रकारका है। उपाय-उपेय ( उपायोपेय ) और गुरुपर्वक्रम, इसमें यह ग्रन्थ वह 'उपाय' और उसमें रहा सर्वप्रकारका तत्त्वज्ञान-रहस्य वह 'उपेय' है। दोनोंके सहयोगसे 'उपायोपेय' सम्बन्ध सूचित होता है / दूसरा गुरुपर्वक्रम, अनन्तज्ञानी परमात्मा महावीरदेवने देव, नारकी आदि जीवोंका आयुष्य, शरीरप्रमाण इत्यादि किस तरह कितना होता है ? यह देव, मनुष्यरूप बारह पर्षदाके समक्ष योजनगामिनी, सुधास्यन्दिनी धीर-गम्भीर वाणीके द्वारा अर्थरूपमें प्रकाशित किया, श्री सुधर्मास्वामी आदि २°गणधर भगवन्तोंने इस अर्थकी द्वादशांगीरूपमें (बारह शास्त्रों )में सूत्ररचना की / तदनन्तर उनकी परम्परामें हुए श्रीमान् आर्यश्याम आदि महर्षियोंने इस अर्थका प्रज्ञापनादि सूत्र-ग्रन्थों में उद्धार किया, और उनमेंसे साररूप बातें ग्रहण की। श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणजीने श्री बृहत्-संग्रहणी २'ग्रन्थकी रचना की / यह रचना अधिक 500 गाथा प्रमाण विस्तारवाली होनेसे बालजीवों के बोध हेतु, उससे भी संक्षिप्त करके श्रीमान् चन्द्रसूरिजीने इस अनुवाद किये गये संग्रहणीसूत्रकी रचना होनेसे यह ग्रन्थ भी परम्परासे श्री भगवंतकी द्वादशांगीस्वरूप सूत्ररचनाके साथ सम्बन्ध बताता है। अर्थात् यह ग्रन्थ भगवन्तकी द्वादशांगीके आधार पर रचित है, परन्तु स्वमतिकल्पनासे रचित नहीं है, ऐसा स्पष्ट होता है। इसलिए गुरुपर्वक्रमगुरुकी परम्परारूप सम्बन्ध भी इस ग्रन्थकी रचना करनेमें बराबर रक्षित हुआ है। इस तरह मंगल, अभिधेय, प्रयोजन और सम्बन्ध ये अनुबन्धचतुष्टय जो कि ग्रन्थके प्रारंभमें अवश्य कहना चाहिए, उसका दिग्दर्शन कराया है / [1] ___ अवतरण-जैसा ' उद्देश हो वैसा ही निर्देश' हो सके इस न्यायके अनुसार देवोंके 20. सूतं गणहररइयं / 21. अब भी यह विद्यमान है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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