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________________ 178 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी _ [गाथा-८२ चन्द्र-सूर्य-ग्रह और नक्षत्रोंके विमानोंकी पंक्तियाँ जम्बूद्वीपके मेरुको प्रदक्षिणा करती ४'अनवस्थित योगसे अर्थात् एक दूसरेसे अलग-अलग रीतिसे परिभ्रमण करती हैं। जो वस्तुस्थिति हम ऊपर समझ चुके हैं / तारोंके विमानोंके लिए भी वैसा ही है, तो भी उसमें इतना विशेष है कि जो 'ध्रुव 'के तारे हैं वे जगत्के तथाविध स्वभावसे ही सदा स्थिर हैं। तदुपरांत उसके समीप वर्तित तारोंका मण्डल मेरुकी प्रदक्षिणा न करता स्थिर ऐसे 'ध्रुव के तारे की ही प्रदक्षिणा करता वहीं ही घूमता है। यह ध्रुवका तारा अपने भरतक्षेत्रकी अपेक्षासे उत्तरदिशामें है / ऐसे ध्रुवके तारे कुल चार हैं और ये चारों ध्रुवके तारे उस उस क्षेत्रकी अपेक्षासे उत्तरदिशामें ही रहे हुए हैं / अर्थात् भरतक्षेत्रको अपेक्षासे जैसे ध्रुव उत्तरदिशामें है वैसे शेष तीन ध्रुवतारे ऐरवत, पूर्वमहाविदेह और पश्चिम महाविदेहकी अपेक्षासे क्रमानुसार उत्तर दिशामें ही हैं। __ 'सर्वेषामेव वर्षाणां मेरुरुत्तरतः स्थितः' इस वाक्यसे जैसे प्रत्येक क्षेत्रकी अपेक्षासे मेरुपर्वत उत्तरदिशामें ही है वैसे इन ध्रुवतारोंके लिए भी समझे। इन ध्रुवतारों पर जनसमुदाय अनेक प्रकारका आधार रखता है / समुद्रमें चलते जहाज, स्टीमर, हवाईजहाज़ आदिको दिशाकी जानकारीमें यह ध्रुवका तारा 'दिशायंत्र' आदिके द्वारा बहुत ही उपयोगी है, जहाज़ आदि किसी भी दिशामें जाए तो भी उसमें विद्यमान दिशायंत्रकी सूई सदाकाल उत्तर ध्रुवकी ओर ही होती है, जिससे रात्रिमें भी जहाज़ किस दिशामें जाता है उसका बराबर खयाल आ सकता है। ... पहले गाथा 57 में चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिषी देवोंका जो गतिक्रम बताया गया है उसे सामान्यतः जाने। यहाँ विशेषता इतनी समझें कि चन्द्रसे शीघ्र गतिवाले सूर्य हैं, सूर्योंसे शीघ्र गतिवाले (५७वीं गाथामें कहे अनुसार ग्रह नहीं परन्तु ) नक्षत्र हैं, और नक्षत्रोंसे शीघ्र गतिवाले अनवस्थित योगसे परिभ्रमण करते ग्रहोंको समझे / तथा ये ग्रह वक्रातिचार-मन्दगतिवाले होनेसे उनकी नियमित गति नहीं है और इसलिए उनका मुहूर्तगतिमान-परिभ्रमणकालप्रमाण-मण्डलविष्कम्भादि मान आदि प्ररूपणा विद्यमान शास्त्रों में उपलभ्य हों ऐसा नहीं लगता / / नक्षत्रोंकी तरह तारोंके भी मण्डल हैं, और ये मण्डल अपने अपने नियतमण्डलमें ही चर (गति) करनेवाले होनेसे सदा अवस्थित होते हैं / यहाँ ऐसी शंका करनेकी आवश्यकता नहीं है कि तारामण्डलोंकी गति ही नहीं है, क्योंकि तारे भी जम्बूद्वीपवर्ती मेरुपर्वतकी प्रदक्षिणा करनेपूर्वक परिभ्रमण करते हैं, मात्र सूर्य-चन्द्रके बहुत मण्डल होनेके 191. मण्डल प्रकरणमें कहा है कि 'ते मेरु परिअडंता, पयाहिणावत्तमण्डला सव्वे / अणवट्ठिअजोगेहि, चंदा सूरा गहगणा य // 1 // '
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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