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________________ चन्द्र और सूर्यकी पंक्तिका स्वरूप और मतान्तर ] गाथा-८२ [ 179 कारण उनका उत्तरायन-दक्षिणायन जिस तरह होता है वैसे इन तारामण्डलोंका नहीं होता। जो तारामण्डल दक्षिणदिशामें रहकर मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं वे सदाकाल वैसे ही करते हैं, किसी भी समय ये तारे उत्तरदिशामें नहीं आते / और जो तारे उत्तरमें रहकर मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं वे हमेशा उत्तरमें ही रहते हैं; किसी समय दक्षिणदिशामें जाते ही नहीं हैं। __इन तारामण्डलों की संख्या कितनी है यह तथा उन मण्डलोंका विष्कम्भादिप्रमाण वर्तमानमें उपलब्ध ग्रन्थों में देखने में नहीं आता / [ 82] // इति ग्रहपंक्तिस्वरूपम् // // मनुष्यक्षेत्रवर्तीचन्द्रादि पंक्तियोंका यन्त्र // नाम / जाति | पंक्तिसंख्या प्रत्येक पंक्तिगत चन्द्र-सूर्यादि संख्या सर्वसंख्या मनुष्यक्षेत्रमें 132 132 चन्द्रकी सूर्यकी ग्रहकी नक्षत्रकी तारोंकी पंक्तियाँ नहीं हैं | परंतु विप्रकीर्ण |संख्या 8840700 कोडाकोडी 3696 8840700 कोडाकोडी सूचना-मनुष्यक्षेत्रके बाहरके द्वीप-समुद्रोंमें चन्द्र-सूर्यादिकी संख्या जाननेके लिए गाथा ७८-८०के विशेषार्थमें दिया हुआ करण देखें। 4 // मतांतरसे मनुष्यक्षेत्रके बाहर चन्द्र-सूर्य पंक्तिका स्वरूप // [ अन्तर्गत पंक्तिव्यवस्था तथा मतान्तर निरूपणं ] ___ अवतरण-ग्रहकी पंक्तियों विषयक व्यवस्था तथा ग्रहोंके सम्बन्धमें अन्य विचार, पूर्व गाथाके विशेषार्थमें यथायोग्य बताया है / ७८-७९वीं गाथामें द्वीपसमुद्राश्रयी चन्द्रसूर्य संख्या जाननेका जो करण बताया है, वह संग्रहणी ग्रन्थकारने जणाया था। उस गाथाके विशेषार्थमें उस सूर्य-चन्द्रकी संख्या बाबतमें और पंक्ति विषयमें अन्य प्रसिद्ध मत आगे बताएँगे ऐसा कहा था उसी मतका निरूपण क्षेपक गाथाओंसे कहा जाता है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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