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________________ ग्रहकी पंक्तिओंका स्वरूप ] गाथा-८२ [ 177 अथ ग्रहपङ्क्ति स्वरूपम् - अवतरण-पहले नक्षत्रपंक्तिकी व्यवस्था बतानेके बाद अब अनुक्रमसे प्राप्त ग्रहपंक्तिकी व्यवस्था बतानेवाली गाथा ग्रन्थकार महर्षि जणाते हैं / २८°एवं गहाइणोवि हु, नवरं धुवपासवत्तिणो तारा / तं चिय पयाहिणंता, तत्थेव सया परिभमंति // 82 // गाथार्थ-नक्षत्रोंकी पंक्ति विषयक जिस तरह व्यवस्था की उसी तरह ग्रह आदिकी पंक्ति व्यवस्था समझें / इतना विशेष है कि, दो चन्द्रोंका परिवार 176 ग्रहोंका होनेसे ग्रहोंकी पंक्तियाँ भी 176 होती हैं और प्रत्येक पंक्तिमें 66 ग्रहोंकी संख्या होती है / यहाँ यह भी विशेष समझे कि अचल ऐसे ध्रुवतारोंकी समीपमें वर्तित अन्य तारोंके विमान उसी ध्रुवतारेको ही प्रदक्षिणा देते घूमते हैं / // 82 // विशेषार्थ—प्रथमकी गाथाके अनुसार सुगम है, तो भी प्रासंगिक कुछ कहा जाता है। मनुष्यक्षेत्रमें ग्रहोंकी पंक्तियाँ 176 हैं, और प्रत्येक पंक्तियाँ जम्बूद्वीपके प्रान्तभागसे प्रारम्भ होकर मानुषोत्तर पर्वत तक पहुँची हुई है, तथा उस प्रत्येक पंक्तिमें ग्रहसंख्या तो ६६की ही है। ये पंक्तियाँ भी नक्षत्रपंक्तियोंकी तरह सूर्यकी किरणों जैसी दीखती हों वैसा भास होता है / एक चन्द्रके परिवारमें 88 ग्रह होनेसे जम्बूद्वीपके दो चन्द्रोंकी अपेक्षासे 176 ग्रह होते हैं / 88 ग्रहपंक्तियाँ दक्षिणदिशामें होती हैं और 88 ग्रहपंक्तियाँ उत्तरदिशामें होती हैं / तथा नक्षत्रपंक्तिके विवरण प्रसंग पर जैसे नक्षत्रपिटककी व्यवस्था प्रदर्शित की थी वैसे यहाँ भी ग्रहपिटक समझ लें / साथ ही जिस पंक्तिके प्रारम्भमें जो ग्रह होता है, उसी नामवाले ग्रहोंकी 66 जितनी संख्या मानुषोत्तर पर्वत तक पहुँची होती है / जम्बूद्वीपमें दो चन्द्रोंके एक चन्द्रपिटककी अपेक्षासे एक ग्रहपिटक (ग्रह संख्या 176 ), लवणसमुद्रमें दो चन्द्रपिटककी अपेक्षासे दो ग्रहपिटक (ग्रह संख्या 352), धातकीखण्डमें छः चन्द्रपिटककी अपेक्षासे छः ग्रहपिटक (ग्रह संख्या 1056), कालोदधिमें 42 चन्द्रके 21 चन्द्रपिटककी अपेक्षासे 21 ग्रहपिटक (ग्रह संख्या 3696) और अर्धपुष्करके 72 चन्द्राश्रयी 36 चन्द्रपिटककी अपेक्षासे 36 ग्रहपिटक ( कुल ग्रहसंख्या 6336) हैं। इस तरह सर्व मिलकर 66 प्रहपिटक तथा 8856276 कुल ग्रह संख्या मनुष्यक्षेत्रमें होती है। और वे सारे ग्रह मेरुपर्वतकी प्रदक्षिणा देते हुए सदाकाल परिभ्रमण करते हैं / 190 तुलना करें-'छावत्तरगहाणं पंतिसयं होइ मणुयलोगम्मि / छावट्ठीअ छावठीअ होइ इक्किक्किआ पंती // 1 // ' [ सूर्यप्रज्ञप्ति ] 6. सं. 23
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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