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________________ । मोक्षसे जोड़ने वाले : पंचविध योग ) भवरोगनाशक मोक्षप्रापक योग का माहात्म्य भारतीय धर्मों की जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों धाराओं में 'योग' का अत्यधिक महत्त्व रहा है। मानव-जीवन के अन्तिम साध्य को प्राप्त करने के लिए योग को सभी आस्तिक दर्शनों ने उपादेय माना है। आध्यात्मिक विकास की परिपूर्णता, आत्म-म्वरूप में स्थिति, आत्मा के साथ लगे हुए कर्मबन्धनों से मुक्ति और मोक्ष, निर्वाण और अनन्त अव्यावाध सुख की प्राप्ति के जितने उपाय विविध धर्मों और दर्शनों ने बताये हैं, उनमें से अन्यतम विशिष्ट उपाय 'योग' है। योग प्राचीन आर्य जाति की अनुपम अध्यात्मविभूति है। इसके द्वारा अतीत में आर्य जाति ने आध्यात्मिक उत्कर्ष प्राप्त किया था। आध्यात्मिक विकास के शिखर पर आरूढ़ होने के लिए भारतीय ऋषि-मुनियों ने योग को ही सर्वश्रेष्ठ उपाय बताया था। सर्वकर्ममुक्ति की साधना के लिए, आत्मा पर आए हुए अज्ञान, अदर्शन, मोह, मिथ्यात्व और मूढ़ता तथा कुण्ठा के आवरणों को दूर करने के लिए तीर्थंकरों ने, ऋषि-मुनियों ने योग-साधना का ही आश्रय लिया था। इस पर से यह समझा जा सकता है कि कर्मविज्ञान की दृष्टि में, आत्मा के साथ लगे हुए कर्मों से आत्मा को मुक्त करने और आत्मा को परमात्मा से, मोक्ष से या केवलज्ञानादि से जोड़ने में 'योग' का कितना महत्त्व है ? समभावी आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'योग' का स्वरूप बताते हुए कहा है-“जिससे आत्मा की विशुद्धि होती है, कर्ममल नष्ट होता है और मोक्ष के साथ संयोग होता है, वह योग है।" उपाध्याय यशोविजय जी ने कहा-"मोक्ष के साथ संयोजना करने के कारण इसे योग कहा गया है।" 'ध्यानशतक' की वृत्ति में कहा गया है-"जिससे आत्मा केवलज्ञान आदि से, मोक्ष से जोड़ा जाता है, उसे योग कहते हैं।" 'भगवद्गीता' में योग का ही दूसरा नाम अध्यात्मविद्या या अध्यात्ममार्ग बताकर इसी अध्यात्मविद्या को सर्वविद्याओं में श्रेष्ठ बताया है। मोक्ष-प्राप्ति का निकटतम उपाय होने से समस्त मुमुक्षु आत्माओं के लिए 'योग' नितान्त उपादेय है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'योगबिन्दु' में 'योग' का माहात्म्य बताते हुए कहा है-'योग के जो दो अक्षर हैं, उन्हें भलीभाँति श्रवण-मनन करके अगर विधि-विधानपूर्वक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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