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________________ ॐ ६८ ® कर्मविज्ञान : भाग ८ * आचरित किया जाय, जीवन जीया जाय, तो इससे पापकर्मों का क्षय होता है, ऐसा योग सिद्ध महात्माओं ने उच्च स्वर से गाया है। योग श्रेष्ठ कल्पवृक्ष है, वही परम चिन्तामणि रत्न है, सभी धर्मों में योग प्रधान धर्म है-आत्मा का परम धर्म है, सिद्धिरूप (सर्वकर्ममुक्तिरूप) मोक्ष का सुदृढ़ सोपान है। वास्तव में योग ही भयंकर भवभ्रमण के रोग के समूलनाश की रामबाण औषध है।' मोक्ष से जोड़ने वाला योग ही यहाँ विवक्षित है - प्रस्तुत निबन्ध में कर्मों के आस्रव और बन्ध के कारणभूत त्रिविध योग का विवेचन करना अभीष्ट नहीं है। यहाँ समाधि अर्थ में तथा आत्मा की परम समाहित अवस्था-मोक्षावस्था तक पहुँचाने अथवा मोक्ष में संयोजन कराने-जोड़ने के अर्थ में योग का विवेचन करना अभीष्ट है। इस अपेक्षा से योग का फलितार्थ होता हैमोक्ष-प्राप्ति के जितने भी मुख्य और गौण, अन्तरंग अथवा बहिरंग, ज्ञानदृष्टि और आचारदृष्टि से अध्यात्मशास्त्रनिर्दिष्ट साधन हैं, जो साक्षात् या परम्परा से सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष से जोड़ने के उपाय हैं, उनका यथाविधि सम्यक् अनुष्ठान और उससे प्राप्त होने वाली आध्यात्मिक विकास की परिपूर्णता का नाम 'योग' है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने आगमों का मन्थन करके उनमें प्राप्त योगविषयक प्राचीन वर्णन शैली को अध्यात्मपिपासु एवं मुमुक्षु जनता के लाभार्थ परिस्थिति के अनुसार अपनी उदात्त एवं समन्वयात्मक शैली द्वारा योग का सुन्दर स्वरूप प्रस्तुत किया है। योगबिन्दु में मोक्ष-प्राप्ति के अंतरंग-साधक पंचविध योग का महत्त्व ___ उनके द्वारा रचित योगविषयक प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘योगबिन्दु' में उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के अंतरंग-साधक धर्म-व्यापार को योग बताकर उसे पाँच रूपों में विभक्त किया है। वे पाँच रूप ये हैं-"(१) अध्यात्मयोग, (२) भावनायोग, (३) ध्यानयोग, (४) समतायोग, और (५) वृत्तिसंक्षययोग। उन्होंने मोक्ष के साथ संयोजन कराने, -हरिभद्रसूरि -ध्यानशतक वृत्ति -गीता १०/३२ १. (क) 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भावांश ग्रहण, पृ. १ (ख) मोक्खेण जोयणाओ जोगो। (ग) युज्यते वाऽनेन केवलज्ञानादिना आत्मेति योगः। (घ) अध्यात्मविद्या विद्यानाम्। (ङ) अक्षरद्वयमप्येतच्छूयमाणं विधानतः। गीतं पापक्षयायोच्युर्योगसिद्धैर्महात्मभिः॥४०॥ योगः कल्पतरुः श्रेष्ठो, योगश्चिन्तामणिः परः।। योगः प्रधान धर्माणां, योगः सिद्धेः स्वयं ग्रहः॥३७॥ -योगबिन्दु ४०, ३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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