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________________ ॐ ६६ कर्मविज्ञान : भाग ८ * कमी होगी, समतायोग के प्रति श्रद्धा-भक्ति, आस्था नहीं होगी और समता का दीर्घकालिक अभ्यास नहीं होगा, वहाँ क्षमता नहीं होगी और क्षमता के बिना समता की उत्कृष्ट-साधना का विकास नहीं हो सकेगा। चम्पानगरी के सुदर्शन सेठ को मिथ्या दोषारोपण के कारण शूली पर चढ़ा दिया गया था, किन्तु उसके चेहरे पर किसी प्रकार की चिन्ता-व्यथा या विषाद की रेखा नहीं थी। कुछ ही क्षणों बाद जब शूली सिंहासन के रूप में परिवर्तित हो गई, तब भी उसके चेहरे पर अहंकार या गर्व का भाव नहीं था, सहज प्रसन्नता थी। यह था-क्षमता के विकास के कारण समता की चेतना का पूर्ण जागरण का निदर्शन।' समतायोग का चतुर्थ रूप : क्रियात्मक व्यावहारिक समभाव यह समतायोग का अन्तिम प्रकार है। परिवार, जाति, प्रान्त, धर्म-सम्प्रदाय, राष्ट्र, समाज और संघ आदि में जो समभाव का निष्पक्ष और उदार तथा भेदभावरहित व्यवहार किया जाता है, उसे क्रियात्मक व्यावहारिक समभाव कहा जाता है। सम्प्रदाय, परिवार, जाति, समाज, राष्ट्र, प्रान्त आदि क्षेत्रों में जब कभी स्नेह-सम्मेलन, प्रेम-मिलन या एक-दूसरे के उत्सवों, त्यौहारों, पर्वो या समारोहों आदि में सम्मिलित होने के रूप में दृष्टिगोचर होता है। परन्तु आजकल प्रायः ऐसे सक्रिय व्यावहारिक समभाव में औपचारिकता आ जाती है, प्रायः रीति पूरी की जाती है, अन्तर से समभाव की ऊष्मा प्रायः नहीं होती। उनके पीछे समभाव के साथ जो आत्मौपम्य एवं मैत्री आदि की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि होनी चाहिए, वह नहीं होती। फिर भी यह सक्रिय व्यावहारिक समभाव कषायों एवं आर्त्त-रौद्रध्यान को मन्द करने में काफी सफल होता है। सर्वांगीण समभाव ही समतायोग के पौधे को पुष्पित-फलित करने में सफल पूर्वोक्त सभी प्रकार के समभावों को दीर्घकाल तक श्रद्धा-भक्तिपूर्वक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आचरित करने पर ही बीजारोपण से लेकर पुष्पित-फलित होने तक समतायोग सच्चे माने में पूर्ण हो सकता। ऐसे सर्वांगीण समभाव का साधक-आराधक ही समतायोगरूपी वृक्ष के मोक्षरूपी फल को प्राप्त करने में सफल होता है। जो समतायोगी साधक माली की तरह जाग्रत-अप्रमत्त और उत्साहित होकर समतायोगरूपी पौधे की प्रतिक्षण सुरक्षा, विकास, निगरानी एवं भावनाओं का ध्यान रखता है, वही एक दिन निःसन्देह मोक्षरूपी फल को प्राप्त कर सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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